Thursday, October 25, 2007

देश एक और विभाजन की तरफ़


सौरभ मालवीय
आन्ध्र प्रदेश की तरह तमिलनाडु ने भी मुसलमानों और ईसाइयों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण देने का बिल पास कर दिया है। इस बिल में पिछड़े मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षरण देने का प्रावधान है। तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम। करूणानिधि भगवान श्रीराम के होने का और श्रीराम सेतु के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर रहे है। उन्हें यह समझना चाहिए कि यह देश सनातन है और इस देश की जनता की भावनाओं और आस्थाओं से खिलवाड़ करने वालों को यह समाज कभी माफ नहीं करता है।

23 जुलाई को आन्ध्र प्रदेश भी मुस्लिम आरक्षण विधेयक पारित कर चुका है। इसके तहत पिछड़े मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दाखिलों में 4 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। मुस्लिम आरक्षण को हाई कोर्ट में चुनौती दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा कामर्सु श्रीतेजा ने दी। लेकिन, उसने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। तब सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा। अदालत ने मुस्लिम आरक्षण पर स्टे लगाते हुए इसके आधार पर कॉलेजों में नए एडमिशन करने पर रोक लगा दी। कोर्ट फिलहाल इस मामले पर सुनवाई कर रहा है।

आखिर धर्म के आधार पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने वाले ये जन-प्रतिनिधि देश को कहां ले जाएंगे।

Monday, September 3, 2007

बेजा अधिकारों का अनुच्छेद


अरुण जेटली
अनुच्छेद 370 से यह आशय निकलता है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग नहीं, बल्कि उसके हमारे देश के साथ बस विशेष संबंध है
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान एक दुर्भाग्य है। लोगों को तटस्थता से पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या इससे राष्ट्र का भला हुआ है और क्या यह भारत की अखंडता को मजबूती प्रदान करने में सहायक हुआ है? या फिर इसने समस्याओं में इजाफा किया है? पिछले 57 सालों का अनुभव बताता है कि अनुच्छेद 370 की यात्रा अलग दर्जे के बजाय अलगाव की ओर ले जा रही है। अनुच्छेद 370 एक राज्य और भारतीय संघ के बीच एक संवैधानिक अवरोध था और इस रूप में यह बराबर काम करता रहा। उद्यमियों को निवेश से रोककर इसने राज्य के आर्थिक विकास को बाधित कर दिया। 1947-48 में पाकिस्तान ने हमला कर जम्मू-कश्मीर के एक-तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया था। तब से दो बार 1965 तथा 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो चुके हैं। जब पाकिस्तान को जंच गया कि परंपरागत युद्ध में भारत को हराकर वह पूरे जम्मू-कश्मीर पर कब्जा नहींकर सकता तो आठवें दशक के अंत तक पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध शुरू कर दिया, जो अब तक लगातार जारी है। इस प्रयास में वह भारत के और भूभाग पर तो कब्जा नहीं कर पाया, पर अपने एक भाग (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है) से हाथ जरूर धो बैठा। अनुच्छेद 370 से आशय निकलता है कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि उसके हमारे देश के साथ बस विशेष संबंध हैं। इससे पाकिस्तान और आतंकवादियों, दोनों को यह संदेश मिला कि इसकी पूर्ण अखंडता को रोका जा सकता है। आतंकवाद के माध्यम से अलग दर्जे की ग्रंथि को स्वतंत्र राष्ट्र की मांग के रूप में स्थापित कर दिया। जिन समस्याओं के समाधान के लिए अनुच्छेद 370 लागू किया गया था उनमें से कोई भी हल नहींहुई। अनुच्छेद लागू करने के बाद के ऐतिहासिक घटनाक्रम से यह बात साफ हो जाती है कि इसके प्रावधान समाधान के बजाय खुद ही समस्या हैं। सुरक्षा, विकास, क्षेत्रीय असंतुलन तथा कश्मीरी पंडितों को फिर से जम्मू-कश्मीर में बसाना कश्मीर की बड़ी समस्याएं हैं। इनके अलावा पश्चिम पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करना और उन्हें मुआवजा देना भी उतना ही अहम है। अब सवाल यह उठता है कि क्या अनुच्छेद 370 इन मूल समस्याओं के निराकरण में सहायक है? क्या और अधिक स्वायत्तता देने के लिए अनुच्छेद में परिवर्तन कर राज्य और राष्ट्र के संबंधों को और कमजोर करने से इन समस्याओं का समाधान संभव होगा? इन सब सवालों का एक ही जवाब है-नहीं। भारतीय संविधान का चरित्र संघीय है। केंद्रीय सूची की सातवींअनुसूची में वर्णित शक्तियां केंद्र और संघीय विधायिका के अधीन आती हैं, जबकि राज्य सूची में वर्णित शक्तियां राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं। अनुवर्ती सूची में वर्णित शक्तियां राज्य और राष्ट्र, दोनों के अधिकार क्षेत्र में होती है। जम्मू-कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय सूची को छोटी कर दिया गया है तथा कुछ विशेष अधिकार ही केंद्र ने अपने पास रखे हैं। शेष अधिकार राज्य सूची में डाल दिए हैं। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुवर्ती सूची का भी अस्तित्व नहीं है। यही नहीं केंद्र द्वारा पारित किए गए कानून भी जम्मू-कश्मीर में स्वत: ही लागू नहीं किए जाते। इन्हें लागू कराने के लिए राज्य सरकार की अनुमति की जरूरत पड़ती है। क्या राज्य की समस्याएं हल करने में विधानमंडल की शक्तियों की कमी आड़े आती है? ऐसा नहीं है। अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर सरकार और विधानमंडल के पास अत्यधिक शक्तियां हैं। भारतीय संविधान का संघीय चरित्र केंद्र के पक्ष में झुका है, किंतु जम्मू-कश्मीर के संबंध में इसका उलटा है। अधिकांश शक्तियां राज्य के पास हैं। क्या इन एकतरफा शक्तियों के कारण देश और देश के बाहर लोगों के एक समूह में अलगाववादी ग्रंथि नहींपनप रही है? जो लोग अनुच्छेद 370 के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने या फिर इसमें और अधिक ढील दिए जाने की वकालत कर रहे हैं, उनकी मंशा राज्य की समस्याओं को दूर करना नहींहै, बल्कि लोगों की भावनाओं को भड़काकर अलग दर्जे के अलगाववाद की नई ग्रंथि विकसित करना है। इतिहास ऐसे लोगों को नहींबख्शेगा। हमें इतिहास के सबक भूलने नहीं चाहिए। अनुच्छेद 370 अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान से संबद्ध है। इस अनुच्छेद के चौतरफा विरोध के जवाब में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संक्रमणकालीन पहलू पर जोर देते हुए कहा था कि यह घिसते-घिसते घिस जाएगा। आने वाली घटनाओं ने जवाहरलाल नेहरू का बयान को झुठला दिया है। ये प्रावधान खत्म नहीं किए गए। अब न केवल इनको स्थायी करने की मांग उठ रही है, बल्कि केंद्र और राज्य के संबंधों को और कमजोर करने की मांग भी उठ रही है। ये सब प्रस्ताव राज्य और राष्ट्र के संबंधों को प्रगाढ़ नहींकरते, बल्कि इसके विपरीत ये इन संबंधों को समग्र रूप में नष्ट कर देते हैं। भेदभाव जम्मू-कश्मीर व अन्य प्रदेशों के बीच ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के विभिन्न इलाकों के बीच भी है। जम्मू-कश्मीर में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख प्रमुख इलाके हैं। स्वतंत्रता के बाद से सरकार में जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की भागीदारी सीमित रही है। कश्मीर घाटी के मुकाबले जम्मू की आबादी अधिक होने के बावजूद राज्य में तैनात 4.5 लाख सरकारी कर्मचारियों में से 3.3 लाख कश्मीर घाटी के हैं। विधानसभा में कश्मीर क्षेत्र से 46 सदस्य और जम्मू क्षेत्र से 37 सदस्य चुने जाते हैं। लद्दाख से चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या कुल चार है। जहां तक विकास कार्यों की बात है, इसमें भी जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। भेदभाव समाप्त करने के लिए जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के लिए विकेंद्रित शासन पद्धति अपनाई जानी चाहिए। इसका एक विकल्प इन दोनों क्षेत्रों में प्रोविंशियल काउंसिलों का गठन हो सकता है। विकास कार्यों के मद्देनजर इन काउंसिलों के हाथ में वित्त और न्यायिक शक्तियां होनी चाहिए।

Friday, May 25, 2007

भारतीय बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


-सौरभ मालवीय
भारतीय राजनीति में अनेक विचारधाराएं प्रचलित हैं। इसमें ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्रमुख है। ऐसी परिस्थितियां बन गईं है कि अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उपेक्षा नहीं हो सकती। यह विचारधारा भारत की मूलचितंन से उपजी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ बहुत व्यापक है। सामान्य तौर पर देखा जाए तो राष्ट्रवाद की दुनिया में इसे ठीक से व्याख्यायित नहीं किया गया है। विभिन्न विचारकों के मत में राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में जबरदस्त विरोधाभास है। प्रमुख तौर पर दुनियाभर में जिन विचारधाराओं ने अपनी प्रभावी छाप छोड़ी है उनमें से समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद उल्लेखनीय है।
पूंजीवाद जहां अमीरों की संख्या बढ़ाता है वहीं दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में वृध्दि होती जाती है। यह समाज में खाईं पैदा करता है। वहीं समाजवाद कोई निश्चित विचारधारा नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि समाजवाद वैसी टोपी है, जिसको सब पहनना चाहते हैं जिसके फलस्वरूप उसकी शक्ल बिगड़ गई। समाजवाद विचारधारा कहीं सफल नहीं हो सकी। यह समाज में समानता की बात जरूर करता, लेकिन जो परिणाम विभिन्न देशों और अपने देश में देखने को मिले वे बिल्कुल विपरीत हैं। इसी प्रकार समाज में समता की बात करने वाले साम्यवाद ने लोगों की आशाओं पर पानी फेरा। साम्यवाद एक शोषणविहीन समाज का सपना दिखाता है। उसका साध्य अवश्य पवित्र है, लेकिन साधन ठीक उसके उल्टे अत्यंत गलत हैं। वह हिंसा को सामाजिक क्रांति का जनक मानता है और दुनियाभर में साम्यवादी विचारधारा के नाम पर जितनी हत्याएं की गईं उसका विवरण दिल दहला देता है। इन सभी विचारधाराओं का प्रयोग भारत की धरती पर भी हुआ और इन सबसे जनता का मोह भंग भी हो गया। अपने देश में प्रमुख विचारधारा कांग्रेस के रूप में सामने आई। निश्चित रूप से देश को आजादी दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। आजादी के पूर्व की कांग्रेस ने भारतीय समाज में चेतना जगाने का कार्य किया, जिससे लोगों को विश्वास और संबल प्राप्त हुआ। कांग्रेस ही एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी थी, जिससे जनता को बहुत आशाएं थीं। देश आजाद हुआ और कांग्रेस की सरकार बनी मगर हमारे पहले प्रधानमंत्री भारत की मूल विचार को ठुकराते हुए पश्चिम की ओर ताकने लगे। समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद की तिकड़ी पकाकर इस देश में शासन चलाने का प्रयास किया गया। आखिर परिणाम ढाक के तीन पात ही निकले। क्योंकि भारतीय जनता सरकार से दूर होती गई और आजादी के कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर चमकने लगा। प्रख्यात क्रांतिकारी व विचारक अरविंदो, युवा संयासी विवेकानंद, रामकृष्ण परहंस, आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघ चालक डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार व भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों को प्रधानता मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा तथा उसके पर्वूवर्ती भारतीय जनसंघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मंत्र को देशभर में गुंजाया। अब सवाल उठता है कि राष्ट्र क्या है ? क्या भारत एक राष्ट्र है ? क्या भारतीय राष्ट्र के संपूर्ण भूगोल पर किसी एक शासक का शासन रहा है। आखिर वो कौन सी ताकत है जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में पहचान दिलाती है। यहां यह समझना आवश्यक होगा कि राष्ट्र व राज्य में अन्तर होता है। भारतीय राष्ट्र और पश्चिम के नेशन स्टेट में जमीन-आसमान का अन्तर है। वामपंथी और अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि भारत सोलह राष्ट्रीयताओं वाला देश है। क्या यह उचित है ? अब हम यहां पर राष्ट्र शब्द के बारे में भारतीय परिप्रेक्ष्य में चर्चा करेंगे। राष्ट्र शब्द सबसे पहले हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए भारत के ऐतिहासिक ग्रंथ ऋग्वेद में उल्लेखित है।
किसी राष्ट्र के लिए सबसे आवश्यक तत्व है- एक भूखंड, जो किसी प्राकृतिक सीमाओं से घिरा हुआ हो। दूसरा, प्रमुख तत्व है उस विशिष्ट भू-प्रदेश में रहने वाला समाज, जो उसके प्रति मातृभूमि के रूप में भाव रखता हो। इस प्रकार जब समाज मर्यादा, परम्पराओं एवं सब दुख, शत्रु-मित्र के समान अनुभूति वाला हो जाता है तब उसे राष्ट्र कहा जा सकता है।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद आदि अवधारणाओं का जन्म पश्चिम में अभी सवा दो सौ वर्ष पूर्व विशेषकर फ्रेंच क्रांति (1789) के पश्चात् हुआ है। वे मानते हैं कि राष्ट्र एक राजनीतिक संकल्पना है।
पाश्चात्य, कम्युनिस्ट और कांग्रेसी मानते हैं कि - "We are nation in he making and India has a multiple culture and pluralist society.'
अथर्ववेद कहता है 'सा नो भूमि: लिषिं बलं राष्ट्र
दयातत्वमें' यह हमारी मातृभूमि हमारे इस राष्ट्र में तेज तथा बल को धारण कर उसे बढ़ाए।
विष्णु पुराण उद्धोष कहता है -
'उत्तरं यत्समुप्रस्य' हिमाद्रेश्चैव दक्षिणाम्।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यस्य सन्तति:॥'
(समुद्र के उत्तर में और हिमालय' के दक्षिण में जो स्थित है उसका नाम भारत है और उसकी संतान भारतीय है)
राष्ट्र के बुनियादी तत्व :
मातृभूमि के प्रति श्रध्दा एवं निष्ठा,
साहचर्य अथवा भ्रातृत्व की भावना और
राष्ट्र जीवन की समानधारा की उत्कृष्ट चेतना।
राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं, बल्कि संस्कृति सूचक एक विशेष शब्द है। राष्ट्र की कोई भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि भूगोल पर आधारित भावनात्मक इकाई है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, उसके आचार-विचार भिन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र की प्रकृति भी भिन्न होती है।
राष्ट्रीयता निर्माण होने के लिए तथा उसके स्थायित्व के लिए कुछ कारक तत्व होते हैं। समान इतिहास, परम्परा व संस्कृति के प्राण हैं, जिनके बिना राष्ट्रीयता उभर ही नहीं सकती। जिन मानव समूहों का वह राष्ट्र है उनको निवास के लिए स्थान चाहिए। अन्य घटक तत्व हो 19वीं और 20वीं शताब्दी में आवश्यक माने गये हैं, वह है भाषा, पंथ, वंश एवं राज्य। इनके अतिरिक्त कुछ सहायक तत्व और भी है, जैसे समान आर्थ्ािक हित सम्बन्ध, साहित्य और साहित्यिक सीमाएं तथा जलवायु।
भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चरम से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के माध्यम से न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, 'राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंत:करण में अपनी भूमि के प्रति श्रध्दा की भावना का होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है।
भारत देश मूलत: संस्कृति प्रधान है। यह इस संस्कृति का ही जादू है कि यूनान, मिस्र और रोम नक्शे से मिट गए पर भारत का अस्तित्व यूं कहे भारतीयता बनी रही। हर दौर में यहां की संस्कृति बार-बार अपने मूल स्वरूप की ओर लौटती रही। इसका कारण सिर्फ इतना है कि हम भारतीयों ने इस देश की मिट्टी, नदियों, पर्वतों, मैदानों, पठारों, परम्पराओं, देवी, देवताओं से ऐसा तारतम्य स्थापित कर लिया है कि कोई बाहरी ताकत इसको प्रभावित करने की जितनी भी चाहे, चेष्टा कर ले, हम अपनी जड़ों को विस्मृत नहीं करते।
भारतीय राष्ट्रीवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक हैं। परंतु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी संस्कृति में ही निहित है - इस बात को न्यायालय के अनेक निर्णयों में स्वीकार किया है। प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस पी.एन. भगवती और अमरेन्द्रनाथ सेन तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था - 'यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनीतिक शासन का जारी रहना नहीं है। बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति है यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के रूप में बांध रखा है।
पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश भारत में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक लोगों के लिए श्रध्दा के केन्द्र हैं। इन महान् तीर्थों में कोई विशेष बात है जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है।
हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र रह जाएगा।
भारत वर्ष का भविष्य अभी बनना है और वह भविष्य सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित होगा भारतीयता पर आधारित होगा। वह सच्चे अर्थों में भारत होगा। संस्कृत में भारत का अर्थ है वह जो 'प्रवाह में रत है - प्रवाह के प्रति प्रतिबध्द है, वही भारत है।
(लेखक भाजपा केन्द्रीय मीडिया सेल से जुड़े है तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर शोध कार्य कर रहे है)

Saturday, May 12, 2007

श्री चिरंजीव सौरभ के मंगल परिणय पर सस्नेह समर्पित


ब्रजेन्द्र कुमार मालवीय
अयि सुमन: सुमन: सुमन: सुमन: सुमनोहर कान्तियुते,
श्रित रजनीरज-नीरज-नीरजनी-रजनीकर वक्त्रयुते।
सुनयन विभ्रम-रभ्र-मर-भ्रमर-भ्रम-रभ्रमराधिपते,
जय जय हे महिषासुर मार्दिनि रम्य कपर्दिनि शैल सुते॥
- जगद्गुरू श्रीशंकराचार्य

काशी गौरीशंकर पद में
हैं दुर्बलसुत वन्दन करते।
हम हैं राम भरोसे के तो
राम रक्ष में रत रहते॥1॥
हे देव तुम्हारी अमित कृपा से
सुमनों को सौरभ मिलता।
शंकर चरणों में चढ़ने पर
भक्तों का जीवन खिलता॥2॥

सुमन जीव, सौरभ शिव हैं
यह जगत् ब्रह्म का नाता है।
जब तक देही देह सहित है
तब तक ही जग भाता है॥3॥

सुमन तुम्हारी सार्थकता है
सौरभ साथ निभाने में।
बिन सौरभ तुम प्राणहीन हो
हो बिनमोल जमाने में॥4॥

सौरभ भी तो हैं अनंद
रति सुमन संग उसका परिचय।
उससे ही वह चर्चित होते
अन्यथा लुप्त होते निश्चय॥5॥

जब भी सुमन देखता कोई
कहता कहां सुरभि इसकी।
सुरक्षित पवन देव को पाकर
सुमन खोजती मति सबकी॥6॥

यद्यपि चन्दन सौरभयुत है।
देव शीश पर चढ़ता है।
फिर भी सुमन हीन होने की
पीड़ा में ही रहता है॥7॥

स्वर्ण सुमन की यही वेदना
उसको सौरभ नहीं मिला।
कनक चाहता जग जी भर
पर उसे ब्रह्म से यही मिला॥8॥

सौरभ सुमन साथ रहकर ही
करते हैं जग को सन्दर।
छोटा-बड़ा नहीं है कोई
एक से एक उभय बढ़कर॥9॥

सुमन युक्त होवें सौरभ से
सौरभ भी होवें सुमन।
श्रीश ब्रजेन्द्र पीयूष कृपा से
करें सृजित सुन्दर जीवन॥10॥
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है