Saturday, November 8, 2008

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ऋषि श्रीलालकृष्ण आडवाणी



-डॊ. सौरभ मालवीय
`माई कंट्री माइ लाइफ´ बस नाम ही काफी है लेखक के उदात्त चित्त को समझने के लिए। राष्ट्रीय संवेदना से इतना एकाकार कि लेखक का जीवन ही देश का जीवन बन गया या राष्ट्र जीवन ही लेखक का प्राण तत्व हो गया। अनादिकाल के ऋषियों से लेकर प्रभु श्रीराम, श्रीकृष्ण, आचार्य चाणक्य, स्वामी विवेकानंद, योगी अरविन्द, हेडगेवार आदि समेत श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपनाम श्री गुरुजी तक लाखों महापुरुषों ने राष्ट्र को ऐसे ही जिया है। इनकी साधना से प्रकाशित होने पर ही भारत नाम धन्य होता है। पश्चिमोत्तर भारत के प्रमुख औद्योगिक केंद्र कराची के इस दिव्य प्रतिभाशाली पुत्र ने भारत को काल्पनिक स्वप्न में या मुंह में चांदी की चम्मच के साथ, नहीं जिया है, अपितु कांग्रेस की कापुंसता के कारण खंडित और आहत भारत माता की साक्षात पीड़ा से गुजरकर भारत को जिया है। भारत द्वेष की कुंठा से त्रस्त पश्चिमी इतिहास बोध की आंखों से वे न तो भारत जानते हैं न ही किसी एडविना के बांह पाश की क्रीड़ा भूमि भारत मानते हैं। इन्हीं कारणों से उनमें छत्रपति शिवाजी के समान अदम्य जीवट भर गया है जो वामपंथ के खोखले शब्द जालों और कांग्रेसियों द्वारा शैतानी छवि गढ़ने पर भी अपने भरपूर आत्मविश्वास से चमचमाता रहता है। उन्हें अपने हिन्दूपन पर भी गर्व है, क्योंकि वह `एक्सीडेंटल´ नहीं है, परंपरागत रूपेण श्रेष्ठ है।

विगत 60 वर्षों की राजनीतिक यात्रा में उन्होंने अजेय कीर्ति स्थापित की है। एक दूरगामी षड्यंत्र के अंतर्गत जब हवाला कांड में वे आरोपित हुए तो तत्काल त्यागपत्र देकर निर्दोष होने तक राजनीति में न आने का भीष्म संकल्प कर लिया। भारत के इतिहास में यह अप्रतिम और एकमेव है। स्वतंत्रता के बाद एक ही परिवार ने इस देश को मनमाने ढंग से हांकने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया औ इस मार्ग में सर्वाधिक सहायक चाटुकारों की फौज रही जो विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों पर अपने अन्नदाता का गुणगान करती रही। फलत: सामान्य देशवासी `हू इज आफटर नेहरू´ और `इंदिरा इज इंडिया´ के बाहर कुछ जान ही नहीं पाया। अन्यथा लोकमान्य तिलक, पंडित मदन मोहन मालवी, राजेंद्र बाबू, सुभाष चंद्र बोस, श्री अरविन्द घोष, डॉण् श्यामाप्रसाद मुखर्जी आचार्य जेबी कृपलानी, पुरुषोत्तम दास टंडन, जयप्रकाश बाबू, अम्बेडकर, निजलिगंप्पा, सरदार बल्लभ भाई पटेल इत्यादि सहस्रावधि महानायक पुस्तकालयों के खंडहर में नहीं समाहित हो गए होते। इसी छलकपट और सामाजिक वंचना के भ्रामक शिकार आडवाणी जी भी बने हैं। इसका सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संपूर्ण भारतवर्ष में लगभग तीन हजार सरकारी संस्थान और सड़कें केवल गांधी नेहरू वंश के नाम हैं।

प्राइवेट की तो गिनती ही संभव नहीं है। एस प्रसन्न राजन का यह कथन समीचीन है कि-``यह एक ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा है जो सत्ता से नहीं अपितु सत्ता के लिए या सत्ता कि विरुद्ध संघर्ष से परिभाषित होता रहा है।´´

पूर्वाग्रह ग्रस्त मीडिया का एक ज्वलंत प्रमाण यह है कि 18 नवंबर 2002 को संसद में श्री आडवाणी जी ने कहा था कि-
सन् 1947 में स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान अपने को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया परंतु उस समय भारत में किसी ने यह सुझाव तक नहीं दिया कि भारत भी एक हिन्दू राज्य होना चाहिए।´´

दूसरे दिन देश के सभी समाचार-पत्रों ने समवेत स्वर से लिखा था कि ``भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं-आडवाणी´

इसे क्या समझा जाए? पत्रकारों का अज्ञान, जो राज्य और राष्ट्र का मूलभूत अंतर भी नहीं समझ पाते या उनकी प्रतिभा विदारक मानसिकता।

वरिष्ठ पत्रकार श्री एण् सूर्य प्रकाश ठीक ही कहते हैं कि-``यथार्थ और छवि के बीच की खाई छद्म पंथ-निरपेक्षता और छदम् लोकतांत्रिक परिवेश की उपज है जो नेहरू-गांधी परिवार के शुभचिंतकों की देन है।

मेरी समझ से यह भारत राष्ट्र के ग्रह नक्षत्रों का फेर है जो लाख प्रयास करने के बावजूद भी अंत में बिगड़ता जा रहा है।

जून 2005 में श्री आडवाणी जी जब पाकिस्तान की सरकारी यात्रा पर गए थे तो वहां मुहम्मद अली जिन्ना के मजार पर रखी पुस्तिका में अपना उद्गार व्यक्त करते हुए उन्हें पंथ निरपेक्ष बताया था। वह भी उस संदर्भ के साथ जोकि 11 अगस्त 1947 को मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान सभा में भाषण दिया था। इसी की पुष्टि में वे एक प्रसिद्ध संत जो रामकृष्ण मिशन से संबद्ध आश्रम कराची के प्रमुख थे उस स्वामी रंगनाथनन्द को भी उद्धृत किया था।

परंतु यह दुर्योग ही था कि गैर तो गैर अपनों ने भी बिना कुछ आगा-पीछा सोचते हुए धरती सिर पर उठा ली। उनमें इतिहास बोध का स्पष्ट अभाव था। वे लोग सच में दया के पात्र हैं। उन्हें जिन्ना का पूर्व चरित्र और भारत विभाजन के गुनाहगारों का कुछ भी ज्ञान नहीं है।

श्री बी .वी कुलकर्णी लिखते हैं कि -जिन्ना स्वयं को जिन्ना भाई सुनकर प्रसन्न होते थे। वे कहते थे कि वह इस्लाम के ऐसे पंथ के अनुयायी हैं जो हिन्दुओं के दशावतारों को मानता है। उनके पंथ में अधिकांशत: उन्हीं सामाजिक परिपाटियों और संपत्ति संबंधी अधिकारों की परंपरा है जो हिन्दू समाज में प्रचलित है। वे मोतीलाल नेहरू से एक बार यहां तक कह दिया था कि ``वह मुल्लाओं की किसी बकवास में विश्वास नहीं करते, यद्यपि उन्हें किसी तरह इन मूर्खो को साथ में चलाना पड़ता है।


श्री अम्बेडकर जिन्ना के बारे में कहते हैं कि-
``उनका निष्ठावान या दीनी मुसलमान का रूप तो कभी नहीं रहा। जब कभी उन्हें विधानसभा की शपथ दिलाई जाती थी तभी वह कुरान को चूमते थे। इसमें भी संदेह है कि कभी उन्होंने उत्सुक्ता या श्रद्धावश किसी मिस्जद में अपने पैर रखे हों। वे कभी मजहबी या राजनीतिक मुस्लिम सम्मेलनों में नहीं देखे गए। अरबी, फारसी और उर्दू का तो उन्हें लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था।
जिन्ना सगर्व कहते थे कि राजनीति की शिक्षा उन्होंने सुरेंद्रनाथ बनर्जी के चरणों में बैठकर ली है।

गोपाल कृष्ण गोखले उनके बारे में कहते थे कि-
``जिन्ना में सत्यभाव है और वह सभी सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त है। अत: वे हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य हेतु सर्वोत्तम राजदूत सिद्ध होंगे।´´

जिन्ना ने ही लोकमान्य तिलक जी का मुकदमा स्वयं लड़ा था और उस दौरान वे तिलक जी की राष्ट्र भक्ति से इतना प्रभावित हुए कि उनके चेले बन गए। तिलक जी पर राजद्रोह के मुकदमे में जिन्ना ने सरकार की बोलती बंद कर दी थी।
रोजनी नाडयू ने लिखा है कि-
-``जिन्ना स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि उनकी प्रथम निष्ठा राष्ट्रीय हित के प्रति है।

जिन्ना ने अपनी राष्ट्रवादी प्रवृत्ति के कारण ही खिलाफत आंदोलन का विरोध किया। उन्होंने गांधी जी के 1920 वाले असहयोग आंदोलन का भी विरोध किया था, क्योंकि इसमें मुस्लिम तुष्टिकरण सिद्ध हो रहा था।
जिन्ना के राष्ट्रवादी चित्त से ही आगा खान उनका विरोध करते थे।
-द मेमाइर्स आफ आगा खान पृष्ठ ९४

16 अप्रैल 1932 में रेमजे मैकडोनाल्ड के सांप्रदायिक निर्णय का भी जिन्ना ने भरपूर विरोध किया था, परंतु कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया। परिणामत: कांग्रेस से पंडित मदन मोहन मालवीय, श्री बापू जी अणे और पंडित परमानंद ने त्याग पत्र दे दिया और कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी बनाकर राष्ट्र सेवा करने लगे।
-और देश बंट गया पृष्ठ ११६
एक बहुत बढ़िया अवसर इस देश ने खो दिया जो श्री लालकृष्ण आडवाणी ने उठाया था। जिन्ना के पंथ निरपेक्षता पर यदि पूरा राष्ट्र बहस में भिड़ जाता तो इन पाखंडियों की पोल खुल जाती जो स्वयमेव भारत का कर्णधार बने हुए हैं। पूरा विश्व इस सत्य को भी जान जाता कि किन-किन कारणों से जिन्ना पाकिस्तान के प्रति समर्पित हो गए। वह जिन्ना जो सुरेंद्रनाथ बनर्जी , लोकमान्य तिलक और गोखले जी को पूजते थे, जबकि उपयुZक्त नेतागण विशुद्ध हिन्दुत्व के पुरोधा थे।

इस बहस के बहाने स्वातंत्रय समर को भी पूरा खंगाल दिया गया होता और सच्चे मोती रत्न जवाहर देश के समक्ष उपलब्ध होते। नकली मुखौटे वाले नंगे होते और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का धर्माधििष्ठत नैिष्ठक शासन तंत्र स्थापित होता।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस मंत्रदृष्टा राजनेता की जीवनी यदि भारत के अतीत की समीक्षा में कारगर भूमिका अदा कर सकी तो समर्थ भारत का उदय भी यह संसार विस्फारित नेत्रों से देखेगा और तभी ऋषियों वाले भारत का परम वैभवशाली स्वरूप जगद्गुरु के रूप में प्रस्थापित होगा।वंदे त्वां भूदेविं भारत मातरम् के चरणों में इसी प्रार्थना के साथ कि हे देवी, श्री आडवाणी जी की इच्छाओं वाला स्वरूप धारण करें और सबको आशीष दें।

श्री लालकृष्ण आडवाणी जी को समर्पित


श्री लालकृष्ण आडवाणी जी के जन्मदिन पर आप सभी पाठको को समर्पित
भारत को अभिमान तुम्हीं पर
भारतीय संस्कृति तव प्राण।

भारतीय जनता की आशा
राष्ट्र भाव का कर दो त्राण।।

झुलेलाल कृपा पूरित तुम
सिद्ध भारती तेरे द्वार।

अनुपम वाक्, लेखनी, चिन्तन,
या, चाल, चलन, आचार।। 2।।

विद्या, वाणिज केंद्र कराची
पश्चिम के भारत की शान।

सहस्रािब्द तक गर्वित भारत
जिसके कारण बना महान।। 3।।

उसी कराची से पाई थी
तुमने भारत का परिचय।

संस्कृत, संस्कृति, राष्ट्र चिरंतन
अटक-कटक है एक दय।। 4।।

मूढ़ नेतृ के दुरभिसंधि ने
तुमसे छिनी कराची थी।

दोनों हाथ कटे भारत के
घोर दर्द उपजाती थी।। 5।।

चार लाख जन के हत्या की
आंखें तेरी साक्षी हैं।

उनके परिजन के आंसू को
तुमने उर में राखी है।। 6।।

हे जसुमति के लालकृष्ण अब
मांग रहा भारत वरदान।

हमें दिला दो सिंध, कराची
हिगुलाज, लाहौर महान।। 7।।

तक्षशिला चाणक्य षिका,
हिन्दुकुश, खैबर, गंधार।

कुभा, सिंधु का समागान तट,
रेशम पथ, पाणिनि आगार ।। 8।।

तेरे माथे दिव्य कीर्ति बन
यह उपलब्धि आएगी।

सावधान! संघर्ष दोहरा
कुंदन सा चमकाएगी।। 9।।

मल्टीनेशनल, सेकुलर,
माक्र्स, मीडिया पाखंडी।

मुल्ला, माओ, मैकालों को
लाल दिखाओ अब झंडी।।10।।

दििग्वजयी अभियान में तेरे
घर के भेदिये घातक हैं।

इन्हें ठिकाने शीघ्र लगा दो।
बाह्य शत्रु शरणागत हैं।। 11।।

लालकृष्ण के यश सौरभ से
भारत मां हरषाएगी।

पुष्टिकरी नवनीत खिलाकर
नव इतिहास बनाएगी।। 12।।

Monday, October 20, 2008

राष्ट्रीय साहित्य


राष्ट्रीय साहित्य इटली के विश्वविद्यालयों में पढाया जाएगा टैगोर साहित्य कोलकत्ता 20 अक्टूबर बांग्ला भाषा और टैगोर साहित्य के अध्ययन के लिए इटली के 11 विश्वविद्यालय अपने यहां अलग से विभाग खोलने जा रहे हैं। यहां स्थित इतालवी महावाणिज्य दूतावास के सूत्रों के मुताबिक इन विश्वविद्यालयों के कुलपति कोलकत्ता जादवपुरण् रवीन्द्र भारती और वर्द्धमान विश्वविद्यालयों के साथ समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए जल्द ही भारत आएंगे।

टैगोर साहित्य का अध्ययन करने के लिए बडी संख्या में इटली के छात्र भारत का रूख कर रहे हैं। इसके अलावा भाषा में दिलचस्पी रखने वाले इटली के भाषाविद कई विदेशी विश्वविद्यालयों में बांग्ला का अध्ययन कर रहे हैं1 गीतांजली के लिए वर्ष 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की अधिकांश रचनाएं पुनर्जागरण काल में इटली में लिखी गई दुखांत कृतियों से प्रेरणाप्राप्त हैं। यही वजह है कि इटली के छात्रों की गुरूदेव के साहित्य में गहरी दिलचस्पी है।

गुरूदेव के नाटक और पुनर्जागरण काल के इतालवी साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन विश्वविद्यालयों में शुरू किए जाने वाले पाठक्रमों के केन्द्रबिन्दु होंगे। साथ ही इतावली और गुरूदेव की संगीत नाटिकाओं को भी पाठक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। पश्चिम बंगाल के चार विश्वविद्यालयों ने भी अपने यहां इटालवी भाषा का पाठक्रम शुरू करने की योजना बनाई है। विश्वविद्यालय की इतालवी भाषा और साहित्य में डिग्री कोर्स शुरू करने की योजना है। इतालवी भाषा में डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स अगले वर्ष शुरू हो जाएगा।

Friday, October 17, 2008

अनूठे सामाजिक सुधारक


आरिफ मोहम्मद खां
सर सैयद अहमद खां (1817-1898) किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हर साल 17 अक्टूबर को उनके जन्मदिन पर दुनिया भर में लोग इस महान सुधारक को याद करते हैं। सर सैयद के देहांत को एक शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है, परंतु शिक्षा, समाज तथा पंथ के विषयों पर उनकी रचनाएं आज भी पूर्णतया सामयिक और प्रासंगिक लगती हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित कर दिया उसका पूरा महत्व तभी समझा जा सकता है जब हम उस भयंकर विरोध तथा प्रतिरोध का ध्यान रखें जो उन्हें पंथ के स्वयंभू ठेकेदारों की तरफ से झेलना पड़ा। सर सैयद के पुत्र न्यायमूर्ति सैयद महमूद ने 1893 में अलीगढ़ में दिए अपने एक भाषण में कहा था कि जब 1824 में तत्कालीन कंपनी सरकार ने कोलकाता में एक संस्कृत विद्यालय खोलने की घोषणा की तो हिंदू नेताओं को यह नागवार गुजरा और उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि वह अधिक से अधिक अंग्रेजी कालेज खोले, ताकि नई पीढ़ी की आधुनिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो सके।

इसके विपरीत जब 11 साल बाद 1835 में सरकार ने सभी सार्वजनिक स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य की तो आठ हजार मौलवियों द्वारा हस्ताक्षरित एक ज्ञापन सरकार को सौंपा गया, जिसमें अंग्रेजी शिक्षा को तुरंत रोकने की मांग की गई थी। ज्ञापन में आरोप लगाया गया कि अंग्रेजी पढ़ाने के पीछे सरकार की मंशा उन्हें ईसाई बनाने की है। इसके बाद सरकार ने स्पष्ट घोषणा की कि पंथिक आस्था के मामले में सरकार पूरी तरह निष्पक्ष तथा तटस्थ है और मतांतरण से उसका कोई सरोकार नहीं है, लेकिन इस सफाई के बावजूद मौलवियों का विरोध बना रहा। उनका कहना था कि अंग्रेजी में पढ़ाया जाने वाला दर्शनशास्त्र तथा तर्कशास्त्र इस्लाम के पंथिक सिद्धांतों से टकराता है, अत: इस शिक्षा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

धार्मिक तटस्थता की सरकारी घोषणाओं को भी यह कहकर रद कर दिया गया कि यह चालाकीपूर्ण रणनीति है जिसका उद्देश्य मुसलिम धर्म को खत्म करना है। इसी के साथ मौलवियों द्वारा मुस्लिमों का आवाहन किया गया कि वे अपने बच्चों को इन स्कूलों में बिल्कुल न भेजें। मौलवियों द्वारा आधुनिक शिक्षा के विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय का जो नुकसान हुआ उसका विस्तृत ब्यौरा सर सैयद ने शिक्षा आयोग के सामने पेश किया। उन्होंने आयोग को बताया कि इस विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा का बहुत कम लाभ उठा सका है। उनके अनुसार 1858 से लेकर 1878 तक 20 वर्ष की अवधि में पास होने वाले स्नातकों की संख्या 3155 थी। इनमें केवल 57 ही मुसलमान थे। स्थिति इतनी खराब है कि जो मुस्लिम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं उन्हें काफिर कहा जाता है और उनके बहिष्कार की धमकी दी जाती है। सर सैयद यह जान गए थे कि मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए पंथिक वर्ग की कट्टरता तथा जड़ता जिम्मेदार है।

इस कट्टरता से मुक्ति पाए बगैर मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। यही कारण है कि 1875 में अलीगढ़ कालेज खुलने से पहले उन्होंने 1870 में तहजीबुल अखलाक नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। इसका उद्देश्य सामाजिक तथा पंथिक सुधार था। अगले छह वर्षो में इस पत्र में 222 लेख छपे, जिनमें 122 लेख सर सैयद ने स्वयं लिखे थे। इसके मुखपृष्ठ पर अरबी भाषा में एक पंक्ति छपी रहती थी, जिसका अर्थ है कि अपने राष्ट्र से प्रेम करना पंथिक आस्था का अनिवार्य तत्व है। तहजीबुल अखलाक के लेखों के पश्चात कट्टर पंथिक वर्ग की ओर से सर सैयद का विरोध और अधिक उग्र होता चला गया। सर सैयद को काफिर बताते हुए उनके खिलाफ साठ फतवे जारी किए गए। सर सैयद के जीवनी लेखक मौलाना हाली ने लिखा है कि इन फतवों को देखकर लगता है जैसे सभी आलिम शिया, सुन्नी, मुकल्लिद (परंपरावादी), गैर मुकल्लिद, वहाबी, बिदअती मतभेद भूलकर सर सैयद को काफिर बनाने के लिए इकट्ठे हो गए हों। मौलवी अली बख्श खां ने मक्का-मदीना की यात्रा की ताकि वहां से सर सैयद के कुफ्र की घोषणा कराई जा सके।

अली बख्श की पहल पर मक्के के चार मुफ्तियों ने फतवे जारी कर कहा कि यह शख्स खुद गुमराह है तथा दूसरों को गुमराह कर रहा है। यह शैतान का खलीफा है। इसको समझाना चाहिए। बाज आ जाए तो बेहतर, वरना इसको पिटाई और कैद की सजा दी जानी चाहिए। मदीना से जारी होने वाले फतवे में यह भी कहा गया, यह शख्स या तो नास्तिक है या फिर इस्लाम से कुफ्र की ओर चला गया है। अगर यह तौबा कर ले तो ठीक, वरना इसका कत्ल कर देना चाहिए। अलीगढ़ कालेज के बारे में कहा गया कि इस संस्था की सहायता करना गुनाह है। इसके संस्थापक तथा सहायकों को इस्लाम से निकाल देना चाहिए। इन फतवों के बाद सर सैयद ने बस इतना कहा कि मुझे खुशी है कि मेरे जैसे गुनहगार की वजह से मौलवी अली बख्श हज तो कर आए।

विरोध और फतवे सर सैयद के निश्चय और साहस को डिगा नहीं सके। उन्होंने एक लेख में लिखा कि वह आलिम जो धर्म का मर्म जानते थे आज नापैद हो गए हैं, अब जो हैं वे तो इस्लाम का भजन गाकर रोटी कमाने वाले और अपना दोजख भरने के लिए तमाम दुनिया को दोजख में भेजने वाले बाकी रह गए। समाज सुधार के विषय में उन्होंने लिखा कि मैं इस विचार से सहमत नहीं कि सामूहिक कार्यक्रम द्वारा सामाजिक बुराइयों को खत्म किया जा सकता है। सुधार के लिए सहमति नहीं प्रतिरोध तथा साहस और धैर्य की आवश्यकता है। सुधार की इच्छा करने वाले को अपने समुदाय की रीति रिवाज का उल्लंघन करना पड़ेगा। उसे बहुत से विरोधों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन अंतत: लोग उसकी बात मानेंगे। क्या अब समय नहीं आ गया है जब हम इस महान सुधारक को शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि उसके पद-चिन्हों पर चलकर श्रद्धासुमन अर्पित करें। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)

Tuesday, October 14, 2008

साम्यवाद और महात्मा गांधी


डॉ. सौरभ मालवीय
दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है।
इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है।
आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें। कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है- • सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी। • कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया। • 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया।
चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया। • भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया। • कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी।ये कुछ बानगी भर है।
आगे हम और विस्तार से बताएंगे।भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करनेवाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी। इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया। 1928 से 1956 तक सोवियत इन्साइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा। परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए। साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा- 'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है।

वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।'

Monday, October 13, 2008

अफीम की मारी माकपा


सतीश पेडणेकर
  1. मार्क्स-ने कहा था-धर्म जनता की अफीम है इसलिए कम्युनिस्टों ने सोवियत संघ और चीन में धर्म का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन भारत लोकतांत्रिक और धार्मिक स्वतंत्रता देने वाला देश है और कम्युनिस्ट यहां सत्ता में भी नहीं है इसलिए वे लोगों को इस अफीम का सेवन करने से जबरन रोक नहीं सकते। पार्टी के कामरेडों पर नियंत्रण जरूर लगाते है। लेकिन जबसे धार्मिक कामरेडों की तादाद बढ़ रही है तब से मार्क्सवादी पार्टी के सामने समस्या है कि अपने कामरेडों को धर्म नामक अफीम का सेवन करने दे या नहीं।

या फिर किस ब्रांड की अफीम का सेवन करने दे और किस ब्रांड की नहीं। कम से कम देवताओं की भूमि कहलाने वाले केरल में माकपा की दुविधा खुलकर सामने आ रही है।इन दिनों केरल के एक स्वर्गीय कामरेड की आत्मा को लेकर मार्क्सवादी पार्टी और ईसाइयों में ठन गई है। माकपा के विधायक मथाई चाको की मृत्यु पिछले साल कैंसर से हुई। हाल ही में उनकी स्मृति में आयोजित एक सभा में केरल माकपा के सचिव पिनराई विजयन ने थामरासेरी के बिशप की कड़ी खिंचाई की क्योंकि उन्होंने बयान दिया था कि मथाई चाको ने कोच्चि में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराना स्वीकार किया था। ईसाइयों में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराने का चलन है।एक दिन बाद केरल की कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ने विजयन के बयान की कड़ी निंदा की। इसके बाद दोनों पक्ष एक दूसरे से माफी मांगने की अपील कर रहे हैं।

माकपा नेताओं का कहना है कि बिशप झूठ बोलने के लिए माफी मांगें क्योंकि मथाई चाको जैसा सच्चा कम्युनिस्ट अंतिम प्रार्थना स्वीकार कर ही नहीं सकता। बिशप प्रार्थना करने गए तब चाको बेहोश थे।इसके साथ केरल में मार्क्सवादियों और ईसाइयों के बीच पिछले काफी समय से चल रहा संघर्ष और तेज हो गया है। पिछले कुछ समय से अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण को लेकर दोनों में ठनी हुई है। ईसाई नेता तो कई बार यहां तक कह चुके है कि माकपा सरकार ने कदम वापस नहीं लिया तो वे 1956 की तरह कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाएंगे। तब आंदोलन के बाद देश की पहली कम्युनिस्ट सरकार को भंग कर दिया गया था।

इस आंदोलन में ईसाई संगठनों ने बढ-चढकर हिस्सा लिया था।ईसाई माकपा और उसकी सरकार से बुरी तरह नाराज हैं। इस नाराजगी के दूर होने के आसार नहीं हैं इसलिए माकपा मुसलिमों को अपनी तरफ आकर्षित करने की भरसक कोशिश कर रही है। इसलिए हाल ही में कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।इसे माकपा की मुसलिमों को रिझाने की कोशिशों का हिस्सा माना जा रहा है। केरल में मुसलिम लीग कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ है। माकपा उसकी जड़े काटने की कोशिश कर रही है।

एक तरफ वह मुसलिमों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही है वहीं पीपुल्स डैमोक्रेटिक फ्रंट, इंडियन नेशनल लीग, जमाते इस्लामी जैसे वाम मोर्चा समर्थक मुसलिम संगठनों के जरिए लीग को चुनौती दे रही है।यूं तो माकपा का सदस्य होने के लिए नास्तिक होना जरूरी नहीं मगर पार्टी सदस्यों से नास्तिक होने की उम्मीद भी करती है इसलिए जब भी कभी किसी माकपा नेता के धार्मिक कृत्य की बात सामने आती है तो विवाद होता है।

पश्चिम बंगाल में मंत्री सुभाष चक्रवर्ती एक बार काली मंदिर के दर्शन करने गए थे तो पार्टी ने उनकी खिंचाई की थी।पिछले दिनों माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली थी तब केरल इकाई के सचिव विजयन ने कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी लेनिनवादी सिध्दांतों से भटकने के खिलाफ चेतावनी दी थी और क्रांतिकारी राह छोड़कर धर्म की तरफ बढ़ने के खिलाफ आगाह किया था। राजनीतिक हलकों में यही माना जा रहा है कि माकपा अपने धार्मिक कामरेडों को लेकर दुविधा में है और कोई स्पष्ट नीति नहीं बना पा रही है।
(साभार: जनसत्ता, 18 अक्टूबर,2007)

Friday, October 10, 2008

हिंदू धर्म में वापस लौटने वाले भी कम नहीं


कटक. उड़ीसा में ईसाई मिशनरियां जहां जबरन धर्मातरण करा रही हंै, वहीं हिंदू धर्म में लौटने वालों की संख्या भी कम नहीं है। शुद्धिकरण प्रक्रिया अपना कर वे मंदिरों में माथा टेक रहे हैं और प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। उनके घरों पर भगवा झंडे लहराने लगे हैं। हिंदू बने सीमान नायक ने बताया कि उसने मंदिर का चावल और घी से बना प्रसाद खाया और भगवान के सामने माथा टेका। हालांकि मिशनरियों का आरोप है कि ईसाइयों को जबरन हिंदू धर्म में वापस किया जा रहा है। कुछ प्रभावितों का भी आरोप है कि जान का भय दिखा उन्हें वापस हिंदू धर्म में लाया गया है। लेकिन पूर्व पुलिस महानिदेशक व हिंदू नेता अशोक साहू कहते हैं कि बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। समस्या की जड़ ईसाइयों द्वारा किया जा रहा धर्मातरण है।

धोखाधड़ी से धर्म परिवर्तन कराना और शांति की कामना करना दोनो एक साथ संभव नहीं है। आदिवासी बहुल कंधमाल जिला ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समय से ही मिशनरी गतिविधियों के कारण विवादों में रहा है। 1991 से 2001 के बीच ईसाई आबादी में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। कंधमाल में ईसाई जनसंख्या दस प्रतिशत है। जबकि पूरे देश में दो प्रतिशत है। भारत के अनेक हिस्सों में धर्मातरण का मुद्दा हमेशा से विवादों में रहा है। धर्म परिवर्तन का यह युद्ध दोनों धर्मो के मानने वालों के दिल और दिमाग में बस गया है।

अनेक हिंदू मानते हैं कि ईसाई मिशनरियां गरीब हिंदुओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और पैसे की सुविधा का लोभ दिखा कर उनका धर्मातरण करती है। उड़ीसा के एक अखबार के संपादक प्रशांत पटनायक का मानना है कि गरीबों और आदिवासियों को सरकार की ओर से न्यूनतम सुविधाएं ही मिली हैं। इसलिए यहां धर्मातरण का रास्ता स्वाभाविक और सरल है। उत्कल विश्र्वविद्यालय के एक प्रोफेसर बसंत मलिक कहते हैं कि हिंदू और ईसाई रूढि़वादियों के लिए कंधमाल एक प्रयोगशाला बन गया है। बताते चलें कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में वापसी का अभियान चलाया था। अगस्त माह में उनकी हत्या के बाद यहां जारी हिंसा सांप्रदायिक स्वरूप ले चुकी है।
साभार : रायटर

Monday, October 6, 2008

मार्क्सवादियों की हिंदी मंडली


शंकर शरण
किसी संगोष्ठी में एक जाने-माने हिंदी मार्क्सवादी ने कहा कि दुनिया में हर जगह सबसे बड़े राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट ही हुए हैं। यह भी कि हर राजनीतिक प्रणाली तानाशाही होती है अत: कम्युनिस्ट शासनों को अलग से तानाशाही कहना ठीक नहीं। उनके अनुसार मार्क्सवाद का लक्ष्य वही था जो पहले भारतीय शास्त्रों में सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:... के रूप में कहा गया। उन्होंने दस मिनट के अंदर ऐसी अनेक बेजोड़ बातें कहीं। इससे पता चलता है कि आखिर हिंदी वाले मार्क्सवादी कैसे बिना किसी शंका-शर्म के मार्क्सवाद का बिल्ला आज भी लहराते हैं क्योंकि उनकी मानसिकता भयंकर अंधविश्वास और घोर अज्ञान में डूबी है। वे मार्क्सीय विचार का म नहीं जानते, मगर प्रतिष्टिंत मार्क्सवादी हैं! इनके ही भरोसे हिंदी के विद्यार्थी मार्क्सवादी या उसके हमदर्द बनते रहे। इस तरह यह अज्ञानी संप्रदाय हिंदी समाज को डुबा रहा है।-- यह बड़ी मोटी सी बात है कि इस्लाम की तरह मार्क्सीय विचार में भी अंतर्राष्ट्रीयतावाद एक मूल सिध्दांत है।
इसमें भी राष्ट्रवाद को सदैव एक दोष या भटकाव माना गया। इसीलिए कम्युनिस्टों की आपसी बहस में राष्ट्रवादी कहलाना गाली जैसा रहा है। कार्ल मार्क्स के शब्दों में, मजदूरों का कोई देश नहीं होता। जब देश ही नहीं, तो देशभक्ति कैसी। लेनिन ने द्वितीय इंटरनेशनल को खारिज कर 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल इसीलिए बनाया था क्योंकि उनके ख्याल में यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियां राष्ट्रवादी हो गई थीं। पश्चिमी में अपने देश के खिलाफ सोवियत संघ के लिए जासूसी करने वाले अधिकांश लोग संबंधित देशों के कम्युनिस्ट ही थे। भारत में भी, कम्युनिस्टों ने 1942 में राष्ट्रीय आंदोलन से द्रोह एवं अंग्रेजों से सहयोग सोवियत संघ को मदद पहुँचाने की चाह से किया। फिर 1943 में (मुस्लिम आत्मनिर्णय का अधिकार कह कर) भारत के विभाजन का मौलिक सिध्दांत कम्युनिस्ट पार्टी ने ही दिया था। उसके लिए गढ़ी गई विस्तृत अधिकारी थीसिस क्या राष्ट्रवाद का दस्तावेज था।
उस एक थीसिस ने भारत को जितना तबाह किया, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं, किंतु हिंदी मार्क्सवादी इस घोर-सांप्रदायिक अतीत के बावजूद धर्म-निरपेक्ष हैं! भारतीय कम्युनिस्टों के लिए 1942 और 1943 कोई पहला या अंतिम राष्ट्र-विरोधी कारनामा नहीं था। उससे पहले भी उनकी नीतियाँ कोमिंटर्न या स्तालिन के कहने पर तय होती थीं।-- राष्ट्रीय नेताओं या कांग्रेस का चरित्र हमारे कम्युनिस्ट अपनी अक्ल से नहीं, अपने रूसी या ब्रिटिश कामरेडों की बुध्दि से तय करते रहे। पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में ही कम्युनिस्ट भी काम करते थे। उससे वे निकाले क्यों गए। इसलिए कि कोमिंटर्न की लाइन के अनुरूप वे छल से कांग्रेस का नेतृत्व हड़पने के लिए उद्योग कर रहे थे, न कि राष्ट्रीय आंदोलन को मदद देने के लिए। इसी तरह 1962 में चीनी आक्रमण का बचाव करने के लिए ही कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई। जो लोग अलग होकर माकपा (सीपीएम) बने, उन्होंने कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीयता के नशे में नेहरू सरकार को ही दोषी बताया। यह न मानने के कारण ही भाकपा (सीपीआई) को राष्ट्रवादी भटकाव की शिकार दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट पार्टी कहकर दो दशक तक निंदित किया गया। वस्तुत: पूरे एशिया में कम्युनिस्ट आंदोलन का ग्राफ दिखाता है कि राष्ट्रवादी भावनाओं से दूर होने के कारण ही वह लोगों की सहानुभूति खोता गया। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने देश के राष्ट्रवादियों के साथ केवल एक छोटी अवधि तक ही रहीं। वह भी कोमिंटर्न के इशारे पर ही। इसी दौर में उन्हें कुछ लोकप्रियता भी मिली। लेकिन चूँकि राष्ट्रवाद उनकी निष्ठा नहीं थी, इसलिए जैसे-जैसे यह साफ होता गया, लोग उनसे दूर होते गए।-- कम्युनिस्टों को देश से कभी मतलब न था, उन्हें हर हाल में केवल विश्व में साम्यवादी सत्ता के लिए जोड़-तोड़ षडयंत्र करना था।
इसीलिए वे देश की चिंता से कभी एकाकार नहीं हुए। अंतर्राष्ट्रीयतावादी फिक्र में उनका मुख्य शत्रु अमेरिका और एकमात्र पितृभूमि सोवियत संघ या लाल चीन था। अपना देश उनकी गिनती में हमेशा बाद में आता था। सोवियत संघ के समीकरणों से उनकी नीतियाँ बनती थीं, न कि अपने देश-हित के लिए। जब बार-बार अनुभव से जनता ने यह समझ लिया, तब से लोकतांत्रिक देशों में कम्युनिस्टों की स्थिति एक सीमित संप्रदाय की हो गई। जिस पर देश-हित के लिए कभी भरोसा नहीं किया जा सकता। केवल भारतीय कम्युनिस्टों ने मुस्लिम आत्मनिर्णय के नाम पर देश को नहीं तोड़ा। जर्मनी, कोरिया और यमन में भी उन्होंने अपने-अपने देशों का विखंडन किया। स्पष्टंत: उनके लिए वर्ग-संघर्ष के समक्ष राष्ट्रीय एकता, अखंडता या सहमति का कोई अर्थ न था। मगर सैध्दांतिक, व्यावहारिक तथ्यों, अनुभवों से अनजान हिंदी का मार्क्सवादी कम्युनिस्टों को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मान उनका भक्त बना हुआ है! उसके लिए सबका कल्याण ही मार्क्सवाद है। उसके लिए निजी संपत्ति का खात्मा, पूँजीपति वर्ग का विनाश, वर्ग-युध्द, क्रांतिकारी हिंसा आदि संकल्पनाओं का अस्तित्व नहीं। कितनी हैरत की बात है कि जो सिध्दांत डंके की चोट पर मानवता के एक हिस्से को खूँरेजी से मिटाने की बात करता है उसे कोई सबका कल्याण चाहने वाला बताए! 1989 में पूर्वी यूरोप में जनता ने तमाम कम्युनिस्ट तानाशाहियों को रातो-रात गद्दी से खींच उतारा। उनसे लोगों को कितनी घृणा थी, इसके रोचक दृश्य सारी दुनिया ने टेलीविजन पर देखे, मगर हिंदी मार्क्सवादी के लिए सभी शासन तानाशाही हैं।-- हिंदी मार्क्सवादी के लिए सभा-संगठन की आजादी, मुक्त प्रेस, स्वतंत्र न्यायालय, वयस्क मताधिकार आदि के होने या न होने में कोई अंतर नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में मार्क्सवादी मंडली हर कहीं, हर विषय पर अनर्गल प्रवचन देती दिखती है। उसे किसी चीज को जानने की जरूरत नहीं। बस उसके बारे में कुछ-न-कुछ मान लेने की जरूरत है।
कुछ न जानकर भी सर्व-ज्ञानी होने का अंदाज- ऐसा विचित्र दृश्य हिंदी मार्क्सवादी जगत के सिवा अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने अपनी सदिच्छाओं को मार्क्सवादी पर आरोपित कर उसे बाजार में चलाया, लेकिन जैसा कि निर्मल वर्मा ने कहीं लिखा है कि जिन्होंने मार्क्स, लेनिन आदि के लेखन को सचमुच पढ़ने-समझने का कष्टं किया, वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन से दूर होते गए। हिंदी बौध्दिकता में आज भी मार्क्सवाद की प्रतिष्ठा का रहस्य इसी टिप्पणी में छिपा हुआ है।लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

Wednesday, October 1, 2008

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्‍ठा, अंतिम भाग


प्रो ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है अंतिम भाग-

मूल्याधारित राजनीतिमूल्य का अर्थ है यह दृष्टि या विवेक कि क्या सही है और क्या गलत है, क्या महत्वपूर्ण है और क्या महत्वहीन, क्या मूल्यवान है, ग्राह्य है, वांछनीय है, क्या मूल्यहीन है, अग्राह्य है, अवांछनीय है। मूल्य उन उच्च मानदण्डों का नाम है जिनके पालन से श्रेष्ठता का सृजन होता है, आदर्शों का निर्माण होता है। मूल्य वह विवेक दृष्टि है जो अच्छे और बुरे का बोध जगाती है। जो अच्छा है उसका आचरण करने और जो बुरा है उससे निवृत्त होने की प्रेरणा देती है। संक्षेप में श्रेष्ठता का मानदण्ड मूल्य कहलाते हैं।राजनीति का क्षेत्र सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के लिए जिन मानदण्डों का पालन ज़रूरी है, वे ही मूल्य हैं। भारतीय जनता पार्टी राजनीति में उच्च मानदण्डों के पालन के प्रति प्रतिबध्द है। मूल्यों के आग्रह के कारण ही किसी समय राजनीति, राजनेता और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त था। मूल्यों का आग्रह छूट जाने से, राजनीति विकृत हो गई और राजनेता तथा राजनैतिक कार्यकर्ता की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंची है। हमें राजनीति को पुन: मूल्यों पर अधिष्ठित करने की अपनी प्रतिबध्दता को सुदृढ़ करना होगा।भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण।

भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति का तात्कालिक उद्देश्य था देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त करना, भारत माता के पाँव में पड़ी बेड़ियों को काटना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का उद्देश्य है राष्ट्रीय विकास, पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय अभ्युदय। इसी से विश्व के देशों की मालिका में भारत को गौरवपूर्ण स्थान मिल सकेगा। कहीं स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति अपने इस महान ध्‍येय से भटक तो नहीं गई है? श्री दीनदयालजी ने सलाह दी थी कि 'राष्ट्र को क्षीण करने वाली राजनीति को त्याज्य ही मानना चाहिए। उनका मत था कि 'राजनीति अन्तत: राष्ट्र के लिए ही होती है। राष्ट्र का विचार त्याग दिया-अर्थात् राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता का विचार ही नहीं किया- तो राजनीति किस काम की'?आज के राजनीतिक दलों के व्यवहार और कार्यकलापों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि राजनीति राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के ध्‍येय से विमुख होकर सत्ताभिमुखी हो गई है। राष्ट्रसेवा का स्थान सत्ता की आंकाक्षा और सत्ता के भोग ने ले लिया है। इसमें से अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा, दलबदल, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, विशेषरूप से सार्वजनिक जीवन के उच्च स्थानों पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सहकार नहीं विरोध, सामंजस्य नहीं वैमनस्य, रचना नहीं विध्‍वंस, तात्कालिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति, वोट बैंक की राजनीति जिसके चलते जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया जाता है, तुष्टीकरण की विभाजनकारी राजनीति। उक्त विकृतियों के कारण आज भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भारी कमी आ गई है।भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें।

भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें। भाजपा की पहचान एक अनुशासित कैडर वाली पार्टी के रूप में होती आई है। आज अनुशासन में कुछ शिथिलता दिखाई पड़ती है, जो भाजपा के कर्णधारों के लिए चिन्ता का विषय है। अनुशासन के पहले जैसे ऊँचे मानदण्डों का आग्रह बढ़ाने की दिशा में ठोस उपाय किए जा रहे हैं। भाजपा दल-बदल की विरोधी हैं, क्योंकि दलबदल से जहां एक ओर राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है, वहीं यह मतदाताओं से विश्वासघात भी है। इसके लिए हमारे चुनाव कानूनों में सुधार किए जाने की ज़रूरत है। भारतीय राजनीति में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का प्रभाव बढ़ा है।परिणामत: चुनाव भयमुक्त और निष्पक्ष वातावरण में नहीं हो पाते और इनसे उपजा जनादेश कई बाद छद्म जनादेश होता है। इसके लिए जहाँ एक ओर राजनीतिक दलों में आमसहमति से आचार संहिता विकसित किया जाना जरूरी है, वहीं चुनाव कानूनों में आवश्यक सुधार करने होंगे। भारतीय राजनीति की एक विकृति अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन है। राजनीतिक गठबंधन समय की आवश्यकता होने पर भी, ये कुछ सिध्दान्तों और मर्यादाओं पर आधारित होने चाहिए। चुनाव परिणाम के बाद महज़ सत्ता प्राप्त करने के लिए किए गए सिध्दान्तविहीन संगठन जहां टिकाऊ नहीं होते वहाँ वे मतदाता से भी छल होता है। यूपीए सरकार कांग्रेस के कुछ अन्य दलों और वामपंथी दलों से गठबन्धान का परिणाम है। लेकिन वामपंथी दल और कांग्रेस में न आर्थिक नीतियों को लेकर और न ही वैदेशिक नीतियों को लेकर सामंजस्य है। उलटे वामपंथी दल यूपीए सरकार पर न्यूनतम सांझा कार्यक्रम से भटक जाने का आरोप लगाते रहते हैं। ऐसे अवसरवादी गठबन्धनों से लोकविश्वास आहत होता है। सार्वजनिक जीवन में उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के प्रसंग अक्सर समय-समय पर सामने आते रहते हैं। इन प्रसंगों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने के बजाय अक्सर इनकी जांच को अनावश्यक रूप से वर्षों-वर्षों लटकाया जाता है और कार्रवाई के नाम पर लीपापोती की जाती है। भ्रष्टाचार विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। कांग्रेस और कुछ अन्य सत्ताालोलुप दल आरक्षण की राजनीति और अल्संख्यक तुष्टीकरण को हवा देने में लगे रहते हैं। राष्ट्रीय हित गौण और दलीय हित प्रमुख हो गए हैं। जातीय और सामाजिक विभाजन की राजनीति की प्रचण्ड प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस अन्धी प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी हो रही है- फिर वह चाहे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सरोकार हों या आंतरिक सुव्यवस्था के सरोकार। दलीय हितों की पूर्ति के लिए लोकतान्त्रिक परम्पराओं और संस्थाओं का अवमूल्यन करने से परहेज़ नहीं किया जाता, राज्यपाल के पद का दुरूपयोग कर सरकारें गिराई जाती हैं, न्यायपालिका और संसद के निर्णयों और भावनाओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित किया जाता है, कानून में रातोंरात संशोधन या परिवर्तन कर न्यायपालिका के सुविचारित निर्णयों को प्रभावहीन बना दिया जाता है। उक्त विकृतियों के चलते मतदाताओं का राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग होता जा रहा है। इस स्थिति का समय रहते कठोरतापूर्वक उपचार करना ज़रूरी है। पटरी से उतर गई राजनीतिक संस्कृति को पुन: पटरी पर बैठाने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने को शुचिता के मूल्य के प्रति प्रतिबध्द करें।

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्ठा- भाग-4


प्रो ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है चौथा भाग-
सकारात्मक पंथनिरपेक्षताभारत बहुधार्मिक-बहुपांथिक देश है। इसमें विविध विश्वासों और आस्थाओं वाले लोग रहते है। उपासना पध्दतियों की बहुलता है। ऐसे समाज को धार्मिक उदारता का दृष्टिकोण अपनाकर ही एक रखा जा सकता है। धार्मिक उदारता पंथनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म का आधारभूत तत्व है। लेकिन सेकुलरिज्म शब्द के अर्थ को लेकर विभ्रम व्याप्त है।सेकुलरिज्म की एक व्याख्या धर्म के विरोध के रूप में की जाती है। यह व्याख्या लौकिकता को स्वीकार करती है और आध्‍यात्मिकता का निषेध करती है। ईश्वरीय सत्ता या अव्यक्त सत्ता को नकार कर लौकिक सत्ता और मानव सत्ता का स्वीकार सेकुलरिज्म माना जाता है। धर्म के अस्वीकार वाली सेकुलरिज्म की कल्पना भाजपा को स्वीकार नहीं।यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है।
यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है। सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या धर्म के मामले में राज्य की तटस्थता के रूप में की जाती है। राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए, राज्य को धार्मिक मामलों से स्वयं को अलग रखना चाहिए, इत्यादि। सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान व्यवहार करे, राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हों और राज्य विभिन्न धार्मिक समुदायों में भेदभाव न करे।हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है। इसमें विविध धर्माचरणों, विश्वासों और उपासना पध्दतियों का स्वीकार है। एक ईश्वर को पाने के, उस तक पहुंचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, ईश्वर की उपासना के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही तत्व को विद्वान् भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं-- एकं सद्विप्रा बहुध वदन्ति'। भारतीय संस्कृति के इस धार्मिक उदारवाद के स्वभाव का ही परिणाम है कि भारत पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहां धार्मिक मामलों में न भेदभाव किया जाता रहा है और नहीं धार्मिक आधार पर किसी धार्मिक समुदाय का उत्पीड़न।किन्तु सेकुलरिज्म के राजनीतिक इस्तेमाल ने इसका रूप विकृत कर दिया है। सेकुलरिज्म के नाम पर वोट की राजनीति का चलन बढ़ता गया है। इसके लिए मुख्यत: कांग्रेस पार्टी का एक वर्ग, कम्युनिस्ट और कुछ अन्य हिन्दू विरोधी ताकतें जिम्मेदार हैं। इनका सकुलरिज्म हिन्दू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण मात्र है। मुस्लिम वोट पर नज़र रखने वाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिए हिन्दू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता है, फिर वे हिन्दू विरोध में चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न बह जाएं। हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं।
हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं। सेकुलरिज्म का लबादा ओढ़े ये छद्म सेकुलरिस्ट घोर साम्प्रदायिक हैं। कश्मीर की अखंडता का प्रश्न हो या बंगलादेशी घुसपैठ और इस्लामी आतंकवाद, ये ऐसे राष्ट्रीय हित और सुरक्षा के प्रश्नों को भी साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही देखते हैं। इनकी धर्मनिरपेक्षता छद्म धर्मनिरपेक्षता है, सत्ता प्राप्ति का शार्टकट है। ये ताकतें हिन्दू भावनाओं को आहत करने का कोई मौका नहीं चूकती। हिन्दू धर्म, लोकाचार तथा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित किसी भी मान्यता या विश्वास को साम्प्रदायिक घोषित कर देती हैं। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की धर्मनिरपेक्षता का धार्मिक सहिष्णुता से कोई वास्ता नहीं। ये घोर असहिष्णु हैं।भारतीय जनता पार्टी जिस सेकुलरिज्म में निष्ठा रखती है उसमें पंथीय राजतन्त्र या थियोक्रेसी के लिए कोई स्थान नहीं है। भाजपा की सेकुलरिज्म की कल्पना का अर्थ हैं सभी धर्मों का आदर, सभी को न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं। भाजपा की यह मान्यता भारत के प्राचीन चिन्तन और परम्परा पर आधारित है।

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्ठा, भाग-3


प्रो. ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतोंमें भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है तीसरा भाग-भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंच निष्ठाएं हैं: राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकतालोकतंत्रगांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापनासकारात्मक पंथनिरपेक्षतामूल्य आधारित राजनीतिसमतामूलक समाज की स्थापनाविश्व के विभिन्न चिन्तकों ने ऐसे समाज की स्थापना का विचार किया है जो शोषणमुक्त हो, और जिसमें मानव-मानव के बीच समानता हो। भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही ऐसे समाज की कामना करती आई है जिसमें सभी सुखी हों, रोगमुक्त एवं स्वस्थ हो, सबका कल्याण हो। समतामूलक समाज की स्थापना की दो दृष्टियां रही हैं- आध्‍यात्मिक और भौतिक।
गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है। आध्‍यात्मिक दृष्टि सभी प्राणियों में, जड़ चेतन में एक परमसत्ता की विद्यमानता को स्वीकार करती है - 'सर्वं खलु इदं ब्रह्मं,' फिर मानव-मानव में अन्तर क्यों? भोग की अधिकता ही विषमता और शोषण का कारण बनती है। संयम का आचरण कर हम विषमता और शोषण को मिटा सकते है अथवा कम कर सकते हैं। गांधीजी ने इच्छाओं और आवश्यकताओं के बहुलीकरण का विरोध किया है। उपनिषद् ने संयमित और मर्यादित भोग को आदर्श जीवन का लक्षण माना है। त्याग भावना के बिना मर्यादित भोग सम्भव नहीं। उपनिषद त्यागपूर्वक भोग की सलाह देते हैं-- त्यक्तेन भुंजीथ:।शोषणमुक्त समतायुक्त समाज की स्थापना मानव समाज के समक्ष निरन्तर एक चुनौती रही है। मार्क्‍स और उनके अनुयायियों ने निजी सम्पत्ति को शोषण और विषमता का कारण बताया और इसका उपचार बताया सम्पत्ति पर से निजी स्वामित्व की समाप्ति और उस पर राज्य का स्वामित्व। मान लिया गया कि उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व होने से व्यक्ति के हाथ में पूंजी का संचय नहीं होगा और शोषण भी नहीं हो सकेगा। इस व्यवस्था में राजशक्ति द्वारा कठोर दमनकारी उपायों का अवलम्बन लिया गया। सारी शक्तियां राज्य के हाथ में केन्द्रित होने से राज्य क्रूर, निर्मम और दमनकारी हो गया। इस व्यवस्था ने व्यक्ति का पूर्ण तिरस्कार किया।
पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।उधर इसकी पूर्ववर्ती व्यवस्था पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।गांधीजी भी मानव समाज में व्याप्त शोषण को मिटाकर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने व्यक्ति के स्वायत्त व्यक्तित्व को नहीं नकारा लेकिन व्यक्ति की चेतना के उन्नयन और समाजीकरण पर बल दिया जिसका अर्थ है व्यक्ति का सामाजिक दायित्वबोध। व्यक्ति जिस समाज में रहता है उसके प्रति उसका नैतिक कर्तव्य या दायित्व है। इसे ममत्व भी कह सकते हैं। यही आत्मविस्तार है। मां अपनी संतान के कल्याण के प्रति जिस भावना से प्रेरित होती है वह भावना ममता कहलाती है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े, दलित, शोषित, अस्पृश्य और वंचित-निर्धन समाज बन्‍धुओं के प्रति गांधीजी ने इसी ममता भावना को उद्दीप्त करने का प्रयत्न किया। गरीब की ऑंखों से ऑंसू पोंछना उनकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की प्रेरणा बनी। उन्होंने दरिद्र में नारायण के दर्शन किए और दलितोध्दार और दरिद्रोध्दार को ईश्वरीय कार्य माना। गांधीजी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करूणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता, ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंने नर सेवा को नारायण सेवा माना।गांधीजी ने ट्रस्टीशिप के सिध्दान्त पर ज़ोर दिया, जिसका अर्थ वास्तव में अपने लिए मर्यादित उपभोग और शेष सम्पत्ति का समाजहित के लिए उपयोग था। इसमें व्यक्ति के सम्पत्ति के उपार्जन पर कोई सीमा या रोक नहीं, लेकिन उपार्जित सम्पत्ति के अपने लिए उपभोग पर रोक की व्यवस्था थी। यह रोक किसी वाह्य शक्ति द्वारा, राजसत्ता द्वारा लागू न होकर व्यक्ति की अन्त:प्रेरणा, नैतिक चेतना, सामाजिक दायित्व बोध द्वारा लागू होगी, ऐसी विचार गांधीजी ने रखा। गाँधीजी के सामाजिक-आर्थिक चिन्तन का अधिष्ठान भारतीय संस्कृति का मूलाधार अध्‍यात्मवाद ही है।श्री दीनदयालजी ने जिस एकात्ममानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया और जिसे भाजपा ने अपने संगठन के दर्शन के रूप में स्वीकार किया वह व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी सत्ता नहीं बल्कि अन्योन्याश्रित सत्ता मानता है। वस्तुत: पूंजीवाद और समाजवाद के एकांगी समाजदर्शन से मानव कल्याण होता न देखकर श्री दीनदयालजी ने एकात्ममानववाद के रूप में ऐसे समग्र दर्शन का प्रतिपादन किया जो मानव का समग्र विचार करता है, उसके शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा सभी पक्षों का समावेश करता है। यह दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और मानवता को एक दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि अन्योन्याश्रित और पूरक मानता है। यह दर्शन संघर्ष और टकराव पर आधारित नहीं है, परस्पर पूरकता पर आधारित है। इसकी मूल दृष्टि आत्मविस्तार की आध्‍यात्मिक दृष्टि है। व्यक्ति और समष्टि एक ही चेतना से व्याप्त है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:।' जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में मनु से कहलवाया है:हम अन्य न और कुटुम्बीहम केवल एक हमीं हैंतुम सब मेरे अवयव होइसमें कुछ भी न कमी है।यह समरसता की दृष्टि है, एकरूपता की दृष्टि है, अविच्छिन्नता की दृष्टि है, अभेद और एकात्म की दृष्टि है।एकात्ममानववाद दर्शन का मूल तत्व है समरसता।
भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है। यही दृष्टिकोण भाजपा को समाज के कमज़ोर वर्गो के प्रति बन्धुभाव, ममत्वभाव अपनाने और उनके कल्याण के लिए रचनात्मक कार्यो, सेवा कार्यो में, प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है।गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है। पंचायती राज को सुदृढ़ करना, विकास के केन्द्र में गांव को और कमज़ोर वर्गो को रखना और केन्द्र-राज्यों की संघीय व्यवस्था को सुदृढ़ करना इसी निष्ठा की अभिव्यक्तियां हैं। यह निष्ठा सामाजिक सौहार्द और सद्भावना को प्रेरित करने वाली और असमानता तथा शोषण मिटाने वाली है।

Monday, September 29, 2008

भाजपा की विचारधारा-पंचनिष्ठा भाग-2



प्रो. ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंचनिष्ठाएं हैं:
राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
लोकतंत्र
गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना
सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
मूल्य आधारित राजनीति
लोकतंत्र
हमारे संविधान ने राजसत्ता के संचालन के लिए लोकतांत्रिक पध्दति स्वीकार की है। लोकतंत्र मतदाता की इच्छा का आदर करने वाला तन्त्र है। भिन्न भिन्न देशों में यद्यपि निर्वाचन की भिन्न भिन्न पद्धतियों का प्रचलन है, किन्तु उन सबमें समान तत्व है लोक की सामूहिक इच्छा के आधार पर सरकार का चुना जाना। भाजपा लोकतांत्रिक व्यवस्था में निष्ठा रखती है, तानाशाही को अस्वीकार करती है और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में है।


लोकतंत्र के प्रति भाजपा की निष्ठा पार्टी के त्रिवार्षिक संगठनात्मक चुनाव में अभिव्यक्त हुई है। पार्टी के कार्यकर्ता स्थानीय समिति से लेकर राष्ट्रीय अधयक्ष तक का चुनाव करते हैं। हर तीन वर्ष के बाद विभिन्न इकाइयों- स्थानीय समिति से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के अधयक्ष बदल जाते हैं। संगठन की पुनर्रचना या नवीकरण होता है।

भाजपा ने समय-समय पर तानाशाही का और लोकतन्त्र को कमज़ोर करने वाली प्रवृत्तियों का विरोध किया है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की और सब प्रकार की स्वतंत्रताओं को स्थगित कर दिया तो भारतीय जनसंघ ने लोकतन्त्र की पुन:स्थापना के लिए संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई। कांग्रेस ने निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने के लिए जब-जब राज्यपाल के पद का दुरूपयोग किया, हमने उसका कड़ा प्रतिकार किया है।

लोकतंत्र जनादेश पर आधारित राज्य व्यवस्था है। संसद और विधान मंडल, स्वतन्त्र प्रैस, स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वायत्ता निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं लोकतन्त्र के सुचारू संचालन के लिए ज़रूरी है। कांग्रेस ने समय-समय पर इन लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर अंकुश लगाने का प्रयत्न किया है और इनका अवमूल्यन किया है। भाजपा ने ऐसे सभी प्रसंगों में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए आवाज़ उठाई है।


लोकतन्त्र में असहमति का सम्मान किया जाता है। सत्तापक्ष बहुमत में होने पर भी विपक्ष के विचारों का सम्मान करता है। विपक्ष के लिए भी रचनात्मक भूमिका निभाना ज़रूरी है। लोकतन्त्र में प्रतिशोध, टकराव और असहिष्णुता के लिए स्थान नहीं है। नीतिभेद रहते हुए भी दलों के बीच सहिष्णुता लोकतन्त्र को पुष्ट करती है।

निष्पक्ष चुनाव लोकतन्त्र का महत्वपूर्ण तत्तव है। बाहुबल और धानबल का इस्तेमाल कर जनादेश को हाइजैक कर लेना लोकतन्त्र को कमज़ोर करता है। दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में बाहुबल, अपराधीकरण और पैसे का प्रभाव बढ़ने से लोकतन्त्र विकृत हो गया है।

जाति और पंथ आधारित राजनीति लोकतन्त्र को कमज़ोर करने वाली प्रवृत्ति है। कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक दलों ने जाति आधारित और साम्प्रदायिक राजनीति का अनुसरण कर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया है। वोट बैंक की राजनीति के चलते सामाजिक और राष्ट्रीय एकता कमज़ोर हुई है। भाजपा ने इन दलों की नकारात्मक प्रवृत्तियों को बराबर बेनकाब किया है।

लोकतंत्र के लिए लोकशिक्षण और लोक संस्कार का बहुत महत्व है। राजनीतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे लोक शिक्षण और लोक संस्कार द्वारा ऐसे लोकमत का पुरस्कार करें जिसकी नींव पर टिका लोकतंत्र स्वस्थ और मज़बूत हो सके। श्री दीनदयाल उपाध्‍याय ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोक शिक्षण को बहुत महत्व दिया है।

राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतंत्र की अनुभूति नही हो सकती। सत्ता का केन्द्रीकरण लोकतंत्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता। नीचे की इकाइयों को अधिक अधिकार देकर प्रभावी करना होगा। भारतीय जनसंघ और भाजपा ने पंचायती राज को मज़बूत बनाने का आग्रह रखा है। गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।

Sunday, September 28, 2008

भाजपा की विचारधारा-पंचनिष्ठाएं भाग-1



प्रो. ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो। ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित करेंगे। प्रस्तुत है पहला भाग-

भारतीय जनता पार्टी और पूर्ववर्ती जनसंघ अन्य राजनैतिक दलों से अपनी अलग पहचान रखते हैं। यह पहचान राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के प्रति उनके आग्रह के कारण है। जहां साधारणतया अन्य राजनैतिक दलों का उद्देश्य राजसत्ता प्राप्त करना है, वहीं भारतीय जनता पार्टी सत्ता को वृहत उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन मानती है। वह वृहत् उद्देश्य है सामाजिक और राष्ट्रीय पुनर्रचना। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जो स्वप्न देखा गया था वह अभी अधूरा पड़ा है। अधूरे सपने को पूरा करना भारतीय जनता पार्टी अपना उद्देश्य मानती है। सामाजिक- राष्ट्रीय पुनर्रचना के उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव है जब पार्टी उच्च निष्ठाओं, सिध्दान्तों और आग्रहों को लेकर चले।

भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंच निष्ठाएं हैं:
राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
लोकतंत्र
गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना
सकारात्मक पंथनिरपेक्षता
मूल्य आधारित राजनीति
राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकता
भारत जैसे विशाल और विविधतायुक्त देश को बांधाने वाले तत्‍व क्या हैं? क्या एक शासन सत्ता देश को एक सूत्र में बांध सकती हैं?क्या संपूर्ण देश में एक संविधान और शासन होना एकता की गारंटी हो सकती है? क्या सुस्पष्ट भौगोलिक सीमाओं में बंधा होना अथवा भौगोलिक इकाई होना एकता की गारंटी हो सकती है? ये तत्व राष्ट्र की एकता के पोषक या सहायक तो हो सकते हैं राष्ट्रीय एकता के मूल अधिष्ठान नहीं हो सकते। मूल अधिष्ठान तो इस विविधातायुक्त देश में रहने वाले जन की प्रकृति चिति, या जीवन-पध्दति है जिसे आमतौर पर संस्कृति कहा जाता है। दीनदयाल उपाध्‍याय जी का कथन है कि 'व्यक्ति की भांति राष्ट्र की भी अपनी आत्मा होती है। उस आत्मा के अस्तित्व के कारण ही सारा राष्ट्र एकात्म बनता है। राष्ट्र की उस आत्मा को हमारे शास्त्रकारों ने ''चिति'' कहा है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक ''चिति'' होती है। ''चिति'' ही राष्ट्रीयता का चिह्न है। इसी ''चिति'' के कारण प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति को भिन्न व्यक्तित्व प्राप्त होता है। साहित्य, कला, धर्म, भाषा, सब इसी ''चिति'' की अभिव्यक्तियां हैं।' जाति, पंथ, भाषा आदि की विविधता होते हुए भी समान संस्कृति विविधतायुक्त भारत को एक सूत्र में बांधाने वाला तत्‍व है। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवाद की कल्पना न कोरी राजनीतिक कल्पना है, न संवैधानिक कल्पना, न भौगोलिक कल्पना यह सांस्कृतिक कल्पना है। इस कल्पना पर आधारित राष्ट्रवाद ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। भारतीय जनता पार्टी के कार्य के विभिन्न आयाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरणा ग्रहण करते हैं।

देश में ऐसी बहुत सी शक्तियां है जिनकी मान्यता उक्त मान्यता से भिन्न है। वे मानते हैं कि भारत बहुसंस्कृतियों वाला देश है, इसलिए यह बहुराष्ट्रीयताओं का देश है। कांग्रेस के कुछ तत्तवों और वामपंथी तत्वों के ऐसे ही विचार है। भारतीय जनता पार्टी को यह विचार सर्वथा अस्वीकार्य है।

हम इस वास्तविकता की उपेक्षा नहीं कर सकते कि द्विराष्ट्रवाद की संकल्पना ने देश का विभाजन किया। जिन्ना, मुसलिम लीग और उसके अनुयायियों की यह मान्यता थी कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग सभ्यताएं हैं और इसलिए ये दोनों समुदाय अलग-अलग राष्ट्र हैं। केवल एक भौगोलिक इकाई का हिस्सा होने मात्र से वे एक राष्ट्र नहीं हो जाते। इसमें से द्विराष्ट्र - हिन्दू राष्ट्र - मुस्लिम राष्ट्र - का विचार बल पकड़ता गया। परिणाम हुआ देश का विभाजन। देश के विभाजन ने हिन्दू-मुसलिम समस्या का समाधान नहीं किया। द्विराष्ट्रवादी या बहुराष्ट्रवादी सोच स्वतंत्रता के बाद भी जारी है जो बार-बार मुस्लिम तुष्टीकरण, अल्पसंख्यकवाद और वोट बैंक की राजनीति के रूप में प्रतिबिंबित होती है। भारतीय जनता पार्टी इस सोच का बराबर विरोध करती है और अपनी सोच को आग्रहपूर्वक स्थापित करती है कि भारत एक संस्कृति वाला एक राष्ट्र है जिसमें जाति, पंथ, भाषा आदि बहुविधा विविधता दिखायी पड़ती है।

कभी-कभी राष्ट्र और राज्य दोंनों का पर्यायवाची रूप में प्रयोग किया जाता है। यह सही नहीं है। राज्य एक राजनैतिक संकल्पना है और राष्ट्र सांस्कृतिक संकल्पना है। राज्य नहीं है तो भी राष्ट्र का अस्तित्‍व हो सकता है। लंबे समय तक यहूदी दुनिया के अलग-अलग देशों में बिखरे हुए थे और उनका अपना राज्य नहीं था । तो क्या यह माना जाये कि यहूदी राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं। यहूदी राष्ट्रीयता की यह भावना ही आगे चलकर उनके राज्य इज़रायल के रूप में मूर्त हुई। यदि किसी जन या मानव समुदाय से उसका राज्य छिन जाये, वह किसी विदेशी सत्ता के अधीन हो जाये तो इससे उस समुदाय की राष्ट्रीयता नष्ट नहीं हो जाती। वह भावना के रूप में समुदाय के लोगों को बराबर सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती रहती है।

इतिहास में ऐसे दृष्टांत भी मिलते हैं जब विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले मानव समुदायों को एक राज्य सत्ता के अंतर्गत बांधने का प्रयत्न किया गया। इससे एक राज्य तो अस्तित्तव में आ गया, पर समान राष्ट्रीयता के अभाव में आगे चलकर विखंडित हो गया। सोवियत संघ इसका उदाहरण है। सोवियत संघ के अंतर्गत अनेक राष्ट्रीयता वाले मानव समुदाय या इकाइयां सम्मिलित की गई थी किन्तु समान राष्ट्रीयता या समान संस्कृति के अभाव में वे एक नहीं रह पाये।भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रहित को पार्टी हित से ऊपर रखती है। राष्ट्रहित को क्षति पहुंचाने वाली प्रवृत्तियों के विरूध्द भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता आंदोलन किया है। ऐसी प्रवृत्तियां जो राष्ट्र की एकता को कमज़ोर करती है, विभाजनकारी है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा हैं, राष्ट्र के स्वाभिमान को कमज़ोर करती हैं और राष्ट्र की अस्मिता तथा उसके प्रतीकों, मानदंडों और चिन्हों के प्रति उपेक्षा का भाव रखती हैं, भाजपा उन्‍हें निर्मूल करने के लिए बराबर आंदोलन करती रही है। आंदोलन के विषय बदलते रहे हैं लेकिन उनके पीछे प्रेरणा या दृष्टि बराबर राष्ट्रहित पोषण की रही है। फिर चाहे आंदोलन का विषय कश्मीर की अखंडता हो, बेरूवाड़ी का हस्तांतरण हो, वंदे मातरम् गान या सरस्वती वंदना के विरोध की मानसिकता हो, अयोध्‍या में राम मंदिर का निर्माण हो, समान नागरिक संहिता हो, आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो, अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण हो, वोट की राजनीति हो, जातिवाद की विभाजनकारी प्रवृत्ति हो या ऐसे ही अन्य अनेक विषय हों। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की प्रेरणा से ही जनसंघ या भाजपा इन विषयों पर आंदोलन में प्रवृत्त हुए। ऐसे तत्तव और प्रवृत्तियां जो हमारी एकता को चुनौती देती हैं, भारतीय जनता पार्टी के आंदोलन के प्रिय विषय रहे हैं। बहुराष्ट्रवाद की सोच, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण, माओवाद, नक्सलवाद, इस्लामी कट्टरवाद, राष्ट्रीय सम्प्रभुता को चुनौती, देश पर चीन का आक्रमण, पाकिस्तानी आक्रमण, बांग्लादेशी घुसपैठ आदि समय-समय पर सार्वजनिक क्षितिज पर उभरने वाले विषयों पर भाजपा के लाखों-लाख कार्यकर्ताओं ने आंदोलन किया और राष्ट्रहित के रक्षण और संवर्धन के लिए अनुकरणीय त्याग किया। राष्ट्र के लिए क्या हितकर और वांछनीय है और क्या अहितकर और अवांछनीय है यह विवेक भाजपा नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं में सदैव जागृत करता रहता है।

भारतीय जनता पार्टी जिस समान संस्कृति को राष्ट्रीयता का अधिष्‍ठान मानती है उसे हिन्दुत्व, भारतीयता और इंडियननैस किसी भी नाम से जाना जा सकता है। राष्ट्रीयता का यह बोध ही हिन्दुत्व है, यही भारतीयता है और यही हमारी जीवन पध्दति है।राष्ट्रीय दृष्टिकोण को मजबूत करने के लिए राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है। जो कुछ है वह राष्ट्र का है, मेरा नहीं। 'राष्ट्राय स्वाहा, राष्ट्राय इद्म न मम्।'
सांस्कृतिक समानता राष्ट्रीय एकता का आधारभूत तत्‍व होता है। एकता के अन्य पोषक तत्व हैं : भौगोलिक सान्निध्‍य, समान अतीत, भाषायी समानता, आध्‍यात्मिक एकता। ये सभी तत्‍व मिलकर किसी मानव समुदाय का एक राष्ट्र बनाते हैं। आतंरिक रूप से धर्म, भाषा, जाति जैसे विभाजक तत्वों के सक्रिय रहते हुए भी मानव समुदायों को उक्त तत्‍व एकरूपता प्रदान करते हैं। राजनैतिक समुदायों को एकता प्रदान करने वाली भावना उसकी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद ही राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय सम्मान, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का स्रोत हैं।राष्ट्रीयता की भावना को मज़बूत करने में समान इतिहास एक पोषक तत्‍व होता है। समान परम्पराएं मानव समुदाय को एक राष्ट्र का रूप देती हैं। समान विचारों एवं अनुभूतियों से युक्त होकर एक निश्चित भूभाग में रहने वाला मानव समुदाय राष्ट्र के रूप में ढलता है। राष्ट्र एक ऐसा मानव समुदाय है जिसकी एक स्वतंत्र राजनैतिक इकाई होना वांछित होने पर भी अनिवार्य नहीं है। राष्ट्र की अपनी पहचान होती है। इसे राष्ट्र की चिति या अस्मिता कहते हैं। भारतीय संस्कृति की पहचान उसके आध्‍यात्मिक रूझान के कारण है। आध्‍यात्मिकता हमारी चिति का वैशिष्टय हैं। राष्ट्रीयता वह भावनात्मक बंधान है जो किसी मानव समुदाय को एक जन में रूपातंरित करता हैं।

संक्षेप में, भारतीय जनता पार्टी एक देश, एक जन और एक संस्कृति की अवधारणा में अविचल विश्वास रखने वाला राजनीतिक दल है। जब कभी राष्ट्रीय हित को क्षति पहुंचती है तो भाजपा स्वाभाविक रूप में उद्वेलित होती है और राष्ट्रीय हित को क्षति पहुंचाने वाले तत्‍वों का प्रबल विरोध करती है। भारतीय जनता पार्टी यह मानती है कि हमारी एक राष्ट्रीय जीवन पध्दति है जो न केवल अक्षुण्ण रहनी चाहिए बल्कि उसका सतत् पोषण और संवर्धन होते रहना चाहिए। हमारे सभी कार्यकलापों का उद्देश्य राष्ट्र का संरक्षण, कल्याण और अभ्युदय है। हमारी सीमाएं सुरक्षित रहनी चाहिए, क्षेत्रीय एकता बनी रहनी चाहिए और हमें अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं और विरासत का स्वाभिमान रहना चाहिए। ये सब बातें राष्ट्रीय हित की अवधारणा का अंग है।

Thursday, August 14, 2008

सबक सीखने से इनकार


ए.सूर्यप्रकाश
सबक सीखने से इनकार मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कट्टर विचारों वाले नेता अपने फरमान का पालन न करने वाले लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के बारे में कैसी भी राय क्यों न बनाएं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चटर्जी ने खुद को विट्ठलबाई पटेल और जीवी मावलंकर जैसे उन चमकते पूर्ववर्तियों की पंक्ति में खड़ा कर लिया है जो अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और साथियों की धौंसपट्टी में नहीं आए। लोकतंत्र और संविधान को महत्व देने वाले प्रत्येक नागरिक को सोमनाथ चटर्जी द्वारा एक अगस्त को जारी किए गए चार पेज के विस्तृत बयान को जरूर पढ़ना चाहिए।
इससे पता चलेगा कि हम लोकसभा के स्पीकर की स्वतंत्रता का हनन करने के कितना करीब पहुंच गए थे। यदि वह कामरेडों की धमकियों और उनकी राजनीतिक चालों का सामना न करते तो एक अहम संवैधानिक पद की निष्पक्षता और गरिमा को क्षति पहुंचा बैठते। अस्पष्ट जनादेश, वोट बैंक की चिंता और नोटों की महिमा के इस हताशापूर्ण दौर में स्पीकर यदि अपनी पार्टी के आलाकमान के हाथों की कठपुतली बन जाते तो लोकतंत्र के ताबूत में एक और कील ठुक जाती। सोमनाथ चटर्जी ने तभी अपने इरादे साफ कर दिए थे जब उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी के पत्र के साथ सांसदों की सूची में अपना नाम शामिल करने के माकपा के निर्णय पर ऐतराज जताया था।
सोमनाथ चटर्जी ने मा‌र्क्सवादियों को उस असाधारण घटनाक्रम की याद दिलाई जिसमें स्पीकर के रूप में उनका नाम प्रस्तावित करते समय 18 नामांकन पत्र भरे गए थे। इन्हें भरने वालों में सत्ताधारी गठबंधन ही नहीं, बल्कि प्रमुख विपक्षी दल और उसके सहयोगी भी शामिल थे। दुर्भाग्य से न तो इन तथ्यों ने और न ही स्पीकर की निष्पक्षता की परंपरा ने उन लोगों पर कोई प्रभाव छोड़ा जो माकपा को चलाते हैं। इसलिए उन्होंने मान लिया कि सोमनाथ चटर्जी की प्राथमिक वफादारी पार्टी के प्रति होनी चाहिए, इसके अलावा कहीं नहीं। संभवत: उन्होंने स्पीकर के पद की संवैधानिक मान्यता को भी अपनी राजनीतिक विचारधारा के चश्मे से देखने की कोशिश की। सौभाग्य से सोमनाथ चटर्जी ने माकपा की इस कोशिश को चुनौती दी और अपने पूर्व कामरेडों को संवैधानिक धर्म के बुनियादी उसूल सिखाए। उन्होंने घोषणा की कि स्पीकर की किसी दल से संबद्धता नहीं होती और इसलिए कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति या अधिसत्ता राष्ट्रपति को दी गई सूची में उनका नाम नहीं डाल सकती। उन्होंने कहा, पार्टी को यह महसूस करना चाहिए था कि एक स्पीकर होने के नाते मैं किसी दल का प्रतिनिधित्व नहीं करता, न ही स्पीकर के कार्यो के संबंध में पार्टी मुझे कोई निर्देश ही दे सकती है।
मैं इस बात को पूरी जोरदारी के साथ दोहराना चाहता हूं। यह कहना पर्याप्त होगा कि माकपा ने जो कुछ किया वह किसी ऐसे व्यक्ति या संस्थान का ही कार्य हो सकता है जिसने लोकतांत्रिक तौर-तरीके न सीखे हों। सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पार्टी को चुनौती देकर एकदम सही किया। उनके समक्ष अनेक अनुकरणीय पूर्ववर्ती हैं, जो पद का सम्मान करते हुए नुकसान उठाने को मजबूर हुए। देश में विधायी सदनों के लिए मार्गदर्शक पुस्तक प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर आफ पार्लियामेंट के रचयिता एसएल शकधर और एमएन कौल ने पूर्व स्पीकरों द्वारा प्रतिपादित कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को लिपिबद्ध किया है। इस सूची में पहला नाम है केंद्रीय विधायी सभा के चुने हुए पहले स्पीकर विट्ठलभाई जे. पटेल का। यह विधायी सभा भारत की स्वतंत्रता की घोषणा तक कायम रही। वह स्वराज पार्टी के सदस्य थे। 1925 में स्पीकर के रूप में अपना चुनाव किए जाने पर उन्होंने अपनी पार्टी से नाता तोड़ दिया। अगली बार वह निर्दलीय के रूप में चुनाव में उतरे और उन्होंने इस पर जोर दिया कि स्पीकर को दलगत राजनीति से परे होना बेहद जरूरी है। उन्हें निर्विरोध चुन लिया गया और जनवरी 1927 में वह फिर से स्पीकर बन गए। स्वतंत्र भारत के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर ने एक अवसर पर कहा कि हमारे राजनीतिक और संसदीय जीवन के वर्तमान हालात में भारतीय स्पीकर के लिए पूरी तरह अंग्रेज स्पीकर जैसा बनना आसान नहीं होगा, फिर भी उसे निश्चित तौर पर पार्टी मामलों और विवादों के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए। दलगत राजनीति से स्पीकर को बिल्कुल अलग-थलग करने के लिए उन्होंने राजनीतिक दलों को सुझाव दिया कि एक स्वस्थ परंपरा कायम करते हुए सदन के स्पीकर को निर्विरोध चुना जाना चाहिए।
इस परंपरा को कायम किए बिना स्पीकर को पूरी तरह गैर-राजनीतिक मानना विरोधाभासी संभावनाओं की अपेक्षा करने के समान होगा। स्पीकर की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए पीठासीन अधिकारियों ने अनेक संगोष्ठियों में यथार्थवादी रुख अपनाया। इसकी शुरुआत 1951 में आयोजित एक संगोष्ठी से हुई। इसका यह प्रभाव हुआ कि 1957 में स्पीकर के रूप में किसी भी राजनीतिक दल ने अनंतसयनम आयंगर का विरोध नहीं किया। आयंगर ने कांग्रेस संसदीय दल से इस्तीफा देकर इस परंपरा का मान बढ़ाया। हालांकि उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था। बाद के वर्षो में चौथी लोकसभा के स्पीकर चुने जाने पर नीलम संजीव रेड्डी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उनके उत्तराधिकारी जीएस ढिल्लन ने कांग्रेस संसदीय दल से उनके इस्तीफे की घोषणा की। यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि सोमनाथ चटर्जी ने स्पीकर चुने जाने के बाद भी माकपा से संबंध विच्छेद नहीं किया इसलिए स्पीकर पद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्वराज पार्टी से संबंध तोड़ने वाले विट्ठलभाई पटेल के समान नहीं हो सकती। इस दलील में कुछ दम हो सकता है, किंतु इससे माकपा को स्पीकर को आंखें दिखाने का अधिकार नहीं मिल जाता। पूर्व में अनेक स्पीकरों ने अपनी पार्टी कांग्रेस से औपचारिक रूप से नाता नहीं तोड़ा था। इनमें जीवी मावलंकर, शिवराज पाटिल और पी संगमा शामिल हैं, किंतु उनकी तरफदारी में यह कहा जा सकता है कि वे अपने शासनकाल में साफ तौर पर पार्टी के अनुशासन और पार्टी की अंदरूनी राजनीति से मुक्त रहे। उनके साथ व्यवहार में कांग्रेस ने भी संवैधानिक रूप से सही रुख अपनाया और ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनकी गरिमा पर आंच आती। भविष्य में स्पीकर और उसकी पार्टी के बीच संबंध तनावपूर्ण होने से बचाने के लिए सोमनाथ चटर्जी ने सुझाव दिया कि स्पीकर को अस्थाई रूप से अपने पार्टी से इस्तीफा दे देना चाहिए। एक समय ठीक यही विट्ठलभाई पटेल ने किया था और मजे की बात है कि दलबदल विरोधी कानून में पीठासीन अधिकारियों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
सोमनाथ चटर्जी के उत्तराधिकारी उनकी सलाह मान सकते हैं। हालांकि तब तक इस बात से छुटकारा नहीं मिलेगा कि जो राजनेता लोकतांत्रिक तौर-तरीके अपनाने के आदी नहीं हैं और जो विचारधारा के कारण पूंजीवादी लोकतांत्रिक संस्थानों से नफरत करते हैं वे संभवत: इन स्वस्थ परंपराओं का पालन नहीं कर सकते। जिस अंदाज में माकपा ने भारतीय संसद के पहले कम्युनिस्ट स्पीकर के साथ व्यवहार किया और प्रत्युत्तर में सोमनाथ चटर्जी ने अपने पूर्व कामरेडों को यह सीख दी कि जब तक वे लोकतांत्रिक मैदान में खेल रहे हैं तब तक उन्हें इसके नियम-कायदे और संवैधानिक तौर-तरीकों का पालन करना होगा उससे यह मुद्दा केंद्रीय भूमिका में आ गया है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Tuesday, August 12, 2008

भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे : रिपोर्ट


नई दिल्ली : एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के अधिकतर मुसलमानों के पूर्वज अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के हिंदू थे, जिन्होंने कालांतर में इस्लाम धर्म अपना लिया और मुसलमान बन गए। आंध्र प्रदेश के मुस्लिम समुदाय में 'सामाजिक और शैक्षणिक वर्ग की पहचान' पर तैयार की गई रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि देश के 85 फीसदी मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे जो अनुसूचित जातियों या पिछड़े तबकों से संबंध रखते थे। इन लोगों ने विभिन्न समयों पर इस्लाम ग्रहण कर लिया।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सलाहकार पी.एस. कृष्णन द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में मुसलमानों और देश में उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति की तस्वीर पेश की गई है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं का मुसलमान बनना समय समय पर चलता रहा... खासकर मध्यकाल में इसने और अधिक गति पकड़ ली। कृष्णन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदुओं में जातिवाद की कठिन व्यवस्था ने इन लोगों के मुसलमान बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

रिपोर्ट में कहा गया है कि इन लोगों ने छुआछूत और भेदभाव से बचने के लिए इस्लाम को अपनाया। उनके लिए इस्लाम कबूल करना एक राहत की बात थी। दक्षिण भारत में कुछ समुदायों के लोगों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। आंध्र प्रदेश में 98 प्रतिशत ईसाई हिंदू अनुसूचित जाति मूल के हैं। पंजाब में इन लोगों ने सिख धर्म अपनाया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के हिंदुओं ने अन्य मजहबों को अपनाया, लेकिन हर जगह पिछड़ापन उनके साथ रहा। यह पिछड़ापन आज भी जारी है और अधिकतर मुसलमान गरीब हैं। कृष्णन ने कहा कि बहुत से शासकों ने मुसलमानों के पिछड़ेपन को महसूस किया और उन्हें मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की। सबसे पहले कोल्हापुर के महाराज ने 1902 में मुसलमानों के लिए आरक्षण शुरू की, जबकि मैसूर के महाराजा ने यह कदम 1921 में उठाया। इसी तरह बम्बई प्रेज़िडंसी और बाद में मद्रास प्रेज़िडंसी ने भी आरक्षण की पेशकश की।

रिपोर्ट में मुसलमानों के 14 ऐसे समुदायों की पहचान की गई है जिन्हें पिछड़ी श्रेणी में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। कृष्णन ने यह रिपोर्ट विभिन्न क्षेत्रों के दौरे और भारत की सामाजिक व्यवस्था पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर तैयार की है।
साभार नवभारत टाईम्स

Monday, January 28, 2008

राष्ट्रीय एकता का मुख्य आधार हमारी संस्कृति


बलबीर पुंज
हिंदुत्व की सही परिभाषा और उस के विस्तृत अर्थ को यदि एक बार समझ लिया जाए तो कई भ्रांतियां खत्म हो जाएंगी।
यदि पंथनिरपेक्षता भारत की आत्मा है, तो हिंदू राष्ट्र इसकी काया हैं। देश के जिस भाग में भी हिंदू विचार पध्दति का क्षय हुआ, वहां पंथनिरपेक्ष व्यवस्था की भी उतनी ही क्षति हुई। देश की एकता का मुख्य आधार हमारी संस्कृति है। इसलिए हमारे देश के राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संज्ञा ही दी जा सकती है।

संस्कृत की निम्न दो पंक्तियों में वीर सावरकर ने हिन्दुत्व का निचोड़ संसार के सामने रखा है-आसिंधु सिंधु पर्यंता यस्य भारतभूमिका:।पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृत:॥प्रत्येक वह जो सिंधु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिंदू है। 'पितृभू' और 'पुण्यभू' शब्दों के विशिष्ट अर्थ हैं। पितृभू का अर्थ है- अपने पूर्वजों की कर्मभूमि और पुण्यभूमि का अर्थ है - जो जिस दर्शन को मानते हैं, उस दर्शन का प्रतिपादन करने वाले दार्शनिकों के कार्य, निवास एवं संस्कृति द्वारा पवित्र बनी भूमि।इस चिंतन पर सर्वोच्च न्यायालय की भी मुहर लगी हैं। संविधान निर्माताओं ने भी हिंदू धर्म को पूजा पध्दति नहीं माना बल्कि उसे जीवनशैली माना। इसलिए धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की गारंटी देते हुए अनुच्छेद 25 में स्पष्ट कर दिया गया कि खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदू के अंतर्गत सिख, जैन अथवा बौध्द मत सम्मिलित हैं। कमिश्नर संपत्ति कर मद्रास एवं अन्य बनाम स्व। आर. श्रीधारन एल. आर. (1976) सप्ली एस. जी. आर. 478 में संविधान पीठ ने निर्णय दिया था कि ''हिंदू अपने में भिन्न-भिन्न प्रकार के विश्वास, श्रध्दा बिंदुओं और पूजा-पध्दतियों को संजोए हुए है। शास्त्री यज्ञ पुरूषदास एवं अन्य बनाम मूलदास भद्रदास एवं अन्य (ए. आई. आर. 1966 ए. जी. 1119) में मुख्य न्यायाधाीश ने भी माना था कि सिंधु नदी के तट पर विकसित सभ्यता से प्रारंभ हुआ समाज हिंदू है न कि पूजा पध्दति।1977 में पांच न्यायाधीशों की एक खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति एम. एच. बेग और आर. एस. सरकारिया शामिल थे, ने पुन: हिंदुत्व को परिभाषित किया। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका से उध्दरण लेते हुए खंडपीठ ने कहा '' हिंदुत्व किसी भी पूजा-पध्दति को स्वीकारने या नकारने की बजाय सभी मान्यताओं व पूजा-पध्दतियों को अंगीकार करती है।'' खंडपीठ ने आगे यह भी कहा कि एक हिंदू चाहे वह किसी भी जाति या मजहब को मानने वाला क्यों न हो, अपनी रूचि से किसी भी पूजा-पध्दति को अपना सकता है। इस तरह हिंदुत्व एक सभ्यता और विभिन्न धर्मों का समुच्चय है, जहां कोई एक संस्थापक या पैगंबर नहीं है। ईसाई या इस्लाम मजहब कबूल कर लेने के बावजूद उस व्यक्ति विशेष की पहचान एक हिंदू के रूप में बनी रहती है। अदालत के अनुसार हिंदू इस देश में रहने वालों के लिए प्रयुक्त होता है, चाहे वे किसी भी मजहब या संप्रदाय से जुड़े क्यों न हों। यह हमारी पहचान है।डा. इस्माइल फारूखी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 1994 (6) एस. सी. सी. पृ. 360 (अयोधया का मुकदमा) में न्यायमूर्ति भरूचा और न्यायमूर्ति अहमदी ने कहा - '' सामान्यत: हिंदुत्व एक जीवन दर्शन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह सहिष्णु है। इस्लाम, ईसाई, पारसी, यहूदी, बौध्द, जैन, सिख आदि मत के लोग इसीलिए इस देश में संरक्षण प्राप्त कर सके।'' महात्मा गांधी ने भी 'हिंदू धर्म' नामक पुस्तक के पृष्ठ 34 पर लिखा है- हिंदुत्व ही हमारी राष्ट्रीयता का आधार था।हिंदू दर्शन में अनंत काल से विचार-विमर्श और श्रेष्ठ चिंतन के आदान-प्रदान की दीर्घ परंपरा रही है। यदि वेदों पर भी कोई तर्कसंगत वाद-विवाद उठता है और कोई नया मान्य पंथ उभरता है तो निस्संदेह हिंदू दर्शन में उसे स्थान मिलता है। यदि ऐसा नहीं होता तो वेदों के साथ साम्य नहीं रखने वाली बौध्द, जैन आदि धाराएं पल्लवित होने से पहले ही सूख जातीं। अनिश्वर व अज्ञेयवादी बौध्द मत के प्रवर्तक बुध्द को भी हमने ईश्वर के अवतार रूप में ही पूजा। यही नहीं, जब भारत की धरती पर ईसाई, यहूदी, पारसी और प्रारंभ के मुसलमान आए तो हिंदू सभ्यता ने बांह फैलाकर उनका स्वागत किया। महाभारत में उल्लेख है: ''अद्रोह सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्म सनातन:॥ समस्त प्राणियों के प्रति मन, वाणी और कर्म से द्रोह भाव नहीं रखना, सबके प्रति अनुग्रह, सबके प्रति उदारता; सनातन धर्म का यही संदेश है।हिंदू संस्कृति अत्यंत प्राचीन है और अपने मूल्यों के कारण सतत् बनी हुई है। इसी उदार भाव के कारण हिंदू संस्कृति भौगोलिक सीमाओं में कैद न होकर चंहुओर फैली। आज कई देशों के लोक व्यवहारों में और उनके साहित्य में हिंदू संस्कृति के चिन्ह मिलते हैं। 1919 में प्रकाशित 'पीपुल्स ऑफ फिलीपाइन्स' नामक पुस्तक में प्रो. क्रोवर ने लिखा है, ''फिलीपाइन के धार्मिक लोगों के विचार, रीति-रिवाज, नाम, शब्द, कला, कौशल आदि पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अमेरिका के प्राचीन निवासी रेड इंडियन के जीवन और उनकी प्राचीन संस्कृति के अधययन से अब कई पाश्चात्य विद्वान भी स्वीकार करने लगे हैं कि यहां किसी समय भारतीय संस्कृति का जोर था। इनके बीच अग्नि संस्कार, सूर्योपासना प्रचलित था। दक्षिण अमेरिका में कई जगह शिवलिंग भी मिले हैं। स्याम देश में हिंदू संस्कृति की छाप अनूठी है। बिना किसी दबाव या प्रभाव के हिंदू संस्कृति का ओज आज भी व्यापक है। तभी आज भी दुनिया भर से लोग आध्‍यात्मिक शांति की तलाश में भारत आते हैं।''हिंदुत्व हमारी राष्ट्रीयता का आधार है। राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं, बल्कि संस्कृति सूचक एक विशेष शब्द है। राष्ट्र कोई भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि भूगोल पर आधारित भावनात्मक इकाई है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, उसके आचार-विचार भिन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र की प्रकृति भी भिन्न होती है। यही उसका वैशिष्टय है। हमारे देश की विशिष्टता हमारी सनातन संस्कृति है। हमारे राष्ट्र जीवन की मूल प्रकृति आध्‍यात्मिक होते हुए भी हमने जीवन के अन्य पक्षों को गौण नहीं माना। मूल प्रकृति में बदलाव आने से विकृतियां आनी स्वाभाविक हैं। अतीत काल में हमारी अनंत भौतिक समृध्दि से आकृष्ट होकर ही हमारे यहां कई विदेशी आक्रमणकारी आए, वहीं हमारी वृत्तियां धार्म, आधयात्मिक या परमात्म चिंतन में ही लगी रहीं। हमारी चेतना व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रवाहित होती रही। यही हिंदू राष्ट्र की अमरता का स्रोत है।जब से हम परतंत्र हुए, हमारी हिंदू चेतना निर्बल होती चली गई। आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू के काल में भी हिंदू राष्ट्रवाद हाशिए पर ही रहा। मैकाले-मार्क्‍स के मानसपुत्रों ने हिंदू शब्द का प्रयोग एक गाली के रूप में किया। वोटों के लिए जमकर तुष्टिकरण की नीति को खूब पोषित किया गया। एक तरफ मुसलमानों में कट्टरपंथी तत्तवों को प्रोत्साहित किया गया, वहीं हिंदू समाज में जातियों को जातियों के विरोधा में खड़ा कर हिंदू समाज को बांटने और कमजोर करने का प्रयास भी हुआ।जैसा कि मैंने ऊपर कहा राष्ट्र जीवन की मूल प्रकृति में बदलाव आने से विकृतियां अवश्यंभावी हैं। अल्पसंख्यकवाद और अन्य संकीर्ण मनोवृत्तियों के कारण क्षेत्रीयता व जातीयता जैसी विकृतियां बढ़ीं और राष्ट्रवाद तिरोहित हो गया। 1980 के आखिर में शुरू हुए अयोध्‍या आंदोलन से हिंदू राष्ट्रवाद की भावना पुनर्जीवित हुई। हिंदुत्व दर्शन में आस्था रखने वाली भारतीय जनता पार्टी को इसीलिए 1998 में सत्ता की कमान थमाई गई। गुजरात की जनता ने दुबारा यह संदेश दिया कि जो इस देश की मुख्य धारा के साथ है, वही उनके साथ चल सकता है। सदियों से हम सखा भाव से सबको आत्मसात करते आए हैं। ''समानशीलव्यसनेषु सख्यम्'' - साथ रहने से लोगों में सख्य भाव उत्पन्न हो जाता है किंतु दुखद पहलू यह है कि देश के कथित हितैषी समाज के लोग द्रोह भाव पाले रखने के लिए लगातार जुटे रहते हैं।छद्म पंथनिरपेक्षी व उन्हें पोषित करने वाले मार्क्‍सवादी राष्ट्र और राज्य शब्द को पर्यायवाची ठहराते हुए राष्ट्रवाद के उभार को गलत अर्थ देने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में राष्ट्र की अवधारणा अत्यंत प्राचीन है। अथर्ववेद में कहा है - ''सानो भूमि: त्विर्षि बलं राष्ट्रे दयातूत्तमे'' (इस राष्ट्र में तेज एवं बल को धारण कर हमारी मातृभूमि वृध्दि करे)। प्राचीन काल से यह मंत्र देश में गुंजायमान है - राष्ट्राय स्वाहा.......इदं राष्ट्राय, इदं न मम्। हम पृथ्वी को मां के रूप में पूजते आए हैं - माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:। स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानंद ने भी हिंदुत्व की ही कल्पना की थी। महर्षि अरविंद भी इसी विचारधारा को प्रतिपादित करते हैं। ''हमारे राष्ट्रवाद का अर्थ सनातन धर्म है। सनातन धर्म के साथ हिंदू राष्ट्र का जन्म हुआ। यह इसी के साथ पल्लवित-पुष्पित हुआ। जब सनातन धार्म का क्षय होता है तो राष्ट्र का भी क्षय होता है।'' भारत सनातन से हिंदू राष्ट्र है और हिंदू राष्ट्र में किसी एक मजहब या पंथ की अवधारणा कभी नहीं की गई। विचारों की विविधता हिंदुत्व का आधार है। भारत में कभी भी पंथ पर आधारित राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। जब हम भारत में पंथ पर आधारित राज्य की कल्पना का त्याग करते हैं, तो उसका एकमात्र कारण यह है कि भारत एक जीवंत व परंपरागत रूप से हिंदू राष्ट्र है। यदि भारत के इतिहास का अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि मुसलमानों के काल को छोड़ दें तो भारत में धर्मनिष्ठ राजा तो बहुत हुए, परंतु पंथ पर आधारित राज्य कभी नहीं रहा। इसका एकमात्र अपवाद सम्राट अशोक थे, जिन्होंने कलिंग के युध्द के बाद बौध्द धार्म स्वीकार कर लिया और फिर इस मत को राज्य धर्म घोषित करके राज्य के संसाधानों से इसका प्रचार किया।भारत एक हिंदू राष्ट्र है तभी वह आज एक पंथनिरपेक्ष राज्य है। यदि ऐसा नहीं होता तो 1947 में जब देश का एक भाग मजहबी आधार पर अलग हुआ और अपने को इस्लामिक राज्य घोषित किया तब यह बहुत स्वाभाविक होता कि शेष भारत अपने को हिंदू राज्य के रूप में घोषित कर लेता। न तो ऐसा हुआ और न ऐसा होना संभव था क्योंकि खंडित भारत एक हिंदू बाहुल्य वाला हिस्सा था। हिंदुत्व एक जीवन पध्दति है, जिसमें बहुलतावादी व बहुपंथीय संस्कृति का समावेश है। इसीलिए हिंदू उपासना में किसी एक ईश्वरवाद की बजाए कोटि-कोटि देवी-देवताओं को मान्यता मिली हुई है।मजहबी राज्य की कल्पना इस्लाम, ईसाई और साम्यवाद में ही संभव है। मैं साम्यवाद को भी एक किस्म का असहिष्णु मजहब मानता हूं, क्योंकि इस सिध्दांत को मानने वाले मानव के कल्याण के लिए केवल कार्ल मार्क्‍स-फ्रेडरिक एंजिल्स द्वारा रचित 'दास कैपिटल' को ही एकमात्र विकल्प मानते हैं। विनोबा भावे भी यहूदी, ईसाई व इस्लाम को ''ही वाद'' और भारतीय संस्कृति को ''भी वाद'' बताते हैं। 'ही वाद' अपने पंथ को ही एकमात्र सच्चा पंथ मानता है। जबकि सनातन धर्म हमें ''आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:'' सब दिशाओं से शुभ ज्ञान के लिए अपने को खुला रखने का संदेश देता है। इसलिए हमारी यह भूमि इतनी पवित्र मानी जाती है और हम उसे माता के रूप में पूजते हैं। वैदिक ऋषि को भी इस श्रेष्ठता का भान था। तभी तो वेदों में कहा गया: ''जनं विभ्रति बहुधा विवचस, नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्'' - अनेक भाषाओं को बोलने वाले, अनेक पंथों का अनुसरण करने वाले जनों को हमारी धारती धारण करती है।अस्तु यह कहा जा सकता है कि यदि पंथनिरपेक्षता भारत की आत्मा है, तो हिंदू राष्ट्र इसकी काया हैं। देश के जिस भाग में भी हिंदू विचार पध्दति का क्षय हुआ, वहां पंथनिरपेक्ष व्यवस्था की भी उतनी ही क्षति हुई। देश की एकता का मुख्य आधार हमारी संस्कृति है। इसलिए हमारे देश के राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संज्ञा ही दी जा सकती है।
 (लेखक प्रसिध्द स्तंभकार है)
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है