Monday, October 20, 2008

राष्ट्रीय साहित्य


राष्ट्रीय साहित्य इटली के विश्वविद्यालयों में पढाया जाएगा टैगोर साहित्य कोलकत्ता 20 अक्टूबर बांग्ला भाषा और टैगोर साहित्य के अध्ययन के लिए इटली के 11 विश्वविद्यालय अपने यहां अलग से विभाग खोलने जा रहे हैं। यहां स्थित इतालवी महावाणिज्य दूतावास के सूत्रों के मुताबिक इन विश्वविद्यालयों के कुलपति कोलकत्ता जादवपुरण् रवीन्द्र भारती और वर्द्धमान विश्वविद्यालयों के साथ समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए जल्द ही भारत आएंगे।

टैगोर साहित्य का अध्ययन करने के लिए बडी संख्या में इटली के छात्र भारत का रूख कर रहे हैं। इसके अलावा भाषा में दिलचस्पी रखने वाले इटली के भाषाविद कई विदेशी विश्वविद्यालयों में बांग्ला का अध्ययन कर रहे हैं1 गीतांजली के लिए वर्ष 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की अधिकांश रचनाएं पुनर्जागरण काल में इटली में लिखी गई दुखांत कृतियों से प्रेरणाप्राप्त हैं। यही वजह है कि इटली के छात्रों की गुरूदेव के साहित्य में गहरी दिलचस्पी है।

गुरूदेव के नाटक और पुनर्जागरण काल के इतालवी साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन विश्वविद्यालयों में शुरू किए जाने वाले पाठक्रमों के केन्द्रबिन्दु होंगे। साथ ही इतावली और गुरूदेव की संगीत नाटिकाओं को भी पाठक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। पश्चिम बंगाल के चार विश्वविद्यालयों ने भी अपने यहां इटालवी भाषा का पाठक्रम शुरू करने की योजना बनाई है। विश्वविद्यालय की इतालवी भाषा और साहित्य में डिग्री कोर्स शुरू करने की योजना है। इतालवी भाषा में डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स अगले वर्ष शुरू हो जाएगा।

Friday, October 17, 2008

अनूठे सामाजिक सुधारक


आरिफ मोहम्मद खां
सर सैयद अहमद खां (1817-1898) किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हर साल 17 अक्टूबर को उनके जन्मदिन पर दुनिया भर में लोग इस महान सुधारक को याद करते हैं। सर सैयद के देहांत को एक शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है, परंतु शिक्षा, समाज तथा पंथ के विषयों पर उनकी रचनाएं आज भी पूर्णतया सामयिक और प्रासंगिक लगती हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित कर दिया उसका पूरा महत्व तभी समझा जा सकता है जब हम उस भयंकर विरोध तथा प्रतिरोध का ध्यान रखें जो उन्हें पंथ के स्वयंभू ठेकेदारों की तरफ से झेलना पड़ा। सर सैयद के पुत्र न्यायमूर्ति सैयद महमूद ने 1893 में अलीगढ़ में दिए अपने एक भाषण में कहा था कि जब 1824 में तत्कालीन कंपनी सरकार ने कोलकाता में एक संस्कृत विद्यालय खोलने की घोषणा की तो हिंदू नेताओं को यह नागवार गुजरा और उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि वह अधिक से अधिक अंग्रेजी कालेज खोले, ताकि नई पीढ़ी की आधुनिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो सके।

इसके विपरीत जब 11 साल बाद 1835 में सरकार ने सभी सार्वजनिक स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य की तो आठ हजार मौलवियों द्वारा हस्ताक्षरित एक ज्ञापन सरकार को सौंपा गया, जिसमें अंग्रेजी शिक्षा को तुरंत रोकने की मांग की गई थी। ज्ञापन में आरोप लगाया गया कि अंग्रेजी पढ़ाने के पीछे सरकार की मंशा उन्हें ईसाई बनाने की है। इसके बाद सरकार ने स्पष्ट घोषणा की कि पंथिक आस्था के मामले में सरकार पूरी तरह निष्पक्ष तथा तटस्थ है और मतांतरण से उसका कोई सरोकार नहीं है, लेकिन इस सफाई के बावजूद मौलवियों का विरोध बना रहा। उनका कहना था कि अंग्रेजी में पढ़ाया जाने वाला दर्शनशास्त्र तथा तर्कशास्त्र इस्लाम के पंथिक सिद्धांतों से टकराता है, अत: इस शिक्षा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

धार्मिक तटस्थता की सरकारी घोषणाओं को भी यह कहकर रद कर दिया गया कि यह चालाकीपूर्ण रणनीति है जिसका उद्देश्य मुसलिम धर्म को खत्म करना है। इसी के साथ मौलवियों द्वारा मुस्लिमों का आवाहन किया गया कि वे अपने बच्चों को इन स्कूलों में बिल्कुल न भेजें। मौलवियों द्वारा आधुनिक शिक्षा के विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय का जो नुकसान हुआ उसका विस्तृत ब्यौरा सर सैयद ने शिक्षा आयोग के सामने पेश किया। उन्होंने आयोग को बताया कि इस विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा का बहुत कम लाभ उठा सका है। उनके अनुसार 1858 से लेकर 1878 तक 20 वर्ष की अवधि में पास होने वाले स्नातकों की संख्या 3155 थी। इनमें केवल 57 ही मुसलमान थे। स्थिति इतनी खराब है कि जो मुस्लिम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं उन्हें काफिर कहा जाता है और उनके बहिष्कार की धमकी दी जाती है। सर सैयद यह जान गए थे कि मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए पंथिक वर्ग की कट्टरता तथा जड़ता जिम्मेदार है।

इस कट्टरता से मुक्ति पाए बगैर मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार संभव नहीं है। यही कारण है कि 1875 में अलीगढ़ कालेज खुलने से पहले उन्होंने 1870 में तहजीबुल अखलाक नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। इसका उद्देश्य सामाजिक तथा पंथिक सुधार था। अगले छह वर्षो में इस पत्र में 222 लेख छपे, जिनमें 122 लेख सर सैयद ने स्वयं लिखे थे। इसके मुखपृष्ठ पर अरबी भाषा में एक पंक्ति छपी रहती थी, जिसका अर्थ है कि अपने राष्ट्र से प्रेम करना पंथिक आस्था का अनिवार्य तत्व है। तहजीबुल अखलाक के लेखों के पश्चात कट्टर पंथिक वर्ग की ओर से सर सैयद का विरोध और अधिक उग्र होता चला गया। सर सैयद को काफिर बताते हुए उनके खिलाफ साठ फतवे जारी किए गए। सर सैयद के जीवनी लेखक मौलाना हाली ने लिखा है कि इन फतवों को देखकर लगता है जैसे सभी आलिम शिया, सुन्नी, मुकल्लिद (परंपरावादी), गैर मुकल्लिद, वहाबी, बिदअती मतभेद भूलकर सर सैयद को काफिर बनाने के लिए इकट्ठे हो गए हों। मौलवी अली बख्श खां ने मक्का-मदीना की यात्रा की ताकि वहां से सर सैयद के कुफ्र की घोषणा कराई जा सके।

अली बख्श की पहल पर मक्के के चार मुफ्तियों ने फतवे जारी कर कहा कि यह शख्स खुद गुमराह है तथा दूसरों को गुमराह कर रहा है। यह शैतान का खलीफा है। इसको समझाना चाहिए। बाज आ जाए तो बेहतर, वरना इसको पिटाई और कैद की सजा दी जानी चाहिए। मदीना से जारी होने वाले फतवे में यह भी कहा गया, यह शख्स या तो नास्तिक है या फिर इस्लाम से कुफ्र की ओर चला गया है। अगर यह तौबा कर ले तो ठीक, वरना इसका कत्ल कर देना चाहिए। अलीगढ़ कालेज के बारे में कहा गया कि इस संस्था की सहायता करना गुनाह है। इसके संस्थापक तथा सहायकों को इस्लाम से निकाल देना चाहिए। इन फतवों के बाद सर सैयद ने बस इतना कहा कि मुझे खुशी है कि मेरे जैसे गुनहगार की वजह से मौलवी अली बख्श हज तो कर आए।

विरोध और फतवे सर सैयद के निश्चय और साहस को डिगा नहीं सके। उन्होंने एक लेख में लिखा कि वह आलिम जो धर्म का मर्म जानते थे आज नापैद हो गए हैं, अब जो हैं वे तो इस्लाम का भजन गाकर रोटी कमाने वाले और अपना दोजख भरने के लिए तमाम दुनिया को दोजख में भेजने वाले बाकी रह गए। समाज सुधार के विषय में उन्होंने लिखा कि मैं इस विचार से सहमत नहीं कि सामूहिक कार्यक्रम द्वारा सामाजिक बुराइयों को खत्म किया जा सकता है। सुधार के लिए सहमति नहीं प्रतिरोध तथा साहस और धैर्य की आवश्यकता है। सुधार की इच्छा करने वाले को अपने समुदाय की रीति रिवाज का उल्लंघन करना पड़ेगा। उसे बहुत से विरोधों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन अंतत: लोग उसकी बात मानेंगे। क्या अब समय नहीं आ गया है जब हम इस महान सुधारक को शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि उसके पद-चिन्हों पर चलकर श्रद्धासुमन अर्पित करें। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)

Tuesday, October 14, 2008

साम्यवाद और महात्मा गांधी


डॉ. सौरभ मालवीय
दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है।
इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है।
आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें। कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है- • सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी। • कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया। • 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया।
चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया। • भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया। • कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी।ये कुछ बानगी भर है।
आगे हम और विस्तार से बताएंगे।भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करनेवाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी। इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया। 1928 से 1956 तक सोवियत इन्साइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा। परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए। साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा- 'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है।

वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।'

Monday, October 13, 2008

अफीम की मारी माकपा


सतीश पेडणेकर
  1. मार्क्स-ने कहा था-धर्म जनता की अफीम है इसलिए कम्युनिस्टों ने सोवियत संघ और चीन में धर्म का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन भारत लोकतांत्रिक और धार्मिक स्वतंत्रता देने वाला देश है और कम्युनिस्ट यहां सत्ता में भी नहीं है इसलिए वे लोगों को इस अफीम का सेवन करने से जबरन रोक नहीं सकते। पार्टी के कामरेडों पर नियंत्रण जरूर लगाते है। लेकिन जबसे धार्मिक कामरेडों की तादाद बढ़ रही है तब से मार्क्सवादी पार्टी के सामने समस्या है कि अपने कामरेडों को धर्म नामक अफीम का सेवन करने दे या नहीं।

या फिर किस ब्रांड की अफीम का सेवन करने दे और किस ब्रांड की नहीं। कम से कम देवताओं की भूमि कहलाने वाले केरल में माकपा की दुविधा खुलकर सामने आ रही है।इन दिनों केरल के एक स्वर्गीय कामरेड की आत्मा को लेकर मार्क्सवादी पार्टी और ईसाइयों में ठन गई है। माकपा के विधायक मथाई चाको की मृत्यु पिछले साल कैंसर से हुई। हाल ही में उनकी स्मृति में आयोजित एक सभा में केरल माकपा के सचिव पिनराई विजयन ने थामरासेरी के बिशप की कड़ी खिंचाई की क्योंकि उन्होंने बयान दिया था कि मथाई चाको ने कोच्चि में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराना स्वीकार किया था। ईसाइयों में मृत्युशैया पर अंतिम प्रार्थना कराने का चलन है।एक दिन बाद केरल की कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ने विजयन के बयान की कड़ी निंदा की। इसके बाद दोनों पक्ष एक दूसरे से माफी मांगने की अपील कर रहे हैं।

माकपा नेताओं का कहना है कि बिशप झूठ बोलने के लिए माफी मांगें क्योंकि मथाई चाको जैसा सच्चा कम्युनिस्ट अंतिम प्रार्थना स्वीकार कर ही नहीं सकता। बिशप प्रार्थना करने गए तब चाको बेहोश थे।इसके साथ केरल में मार्क्सवादियों और ईसाइयों के बीच पिछले काफी समय से चल रहा संघर्ष और तेज हो गया है। पिछले कुछ समय से अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण को लेकर दोनों में ठनी हुई है। ईसाई नेता तो कई बार यहां तक कह चुके है कि माकपा सरकार ने कदम वापस नहीं लिया तो वे 1956 की तरह कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाएंगे। तब आंदोलन के बाद देश की पहली कम्युनिस्ट सरकार को भंग कर दिया गया था।

इस आंदोलन में ईसाई संगठनों ने बढ-चढकर हिस्सा लिया था।ईसाई माकपा और उसकी सरकार से बुरी तरह नाराज हैं। इस नाराजगी के दूर होने के आसार नहीं हैं इसलिए माकपा मुसलिमों को अपनी तरफ आकर्षित करने की भरसक कोशिश कर रही है। इसलिए हाल ही में कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।इसे माकपा की मुसलिमों को रिझाने की कोशिशों का हिस्सा माना जा रहा है। केरल में मुसलिम लीग कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ है। माकपा उसकी जड़े काटने की कोशिश कर रही है।

एक तरफ वह मुसलिमों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही है वहीं पीपुल्स डैमोक्रेटिक फ्रंट, इंडियन नेशनल लीग, जमाते इस्लामी जैसे वाम मोर्चा समर्थक मुसलिम संगठनों के जरिए लीग को चुनौती दे रही है।यूं तो माकपा का सदस्य होने के लिए नास्तिक होना जरूरी नहीं मगर पार्टी सदस्यों से नास्तिक होने की उम्मीद भी करती है इसलिए जब भी कभी किसी माकपा नेता के धार्मिक कृत्य की बात सामने आती है तो विवाद होता है।

पश्चिम बंगाल में मंत्री सुभाष चक्रवर्ती एक बार काली मंदिर के दर्शन करने गए थे तो पार्टी ने उनकी खिंचाई की थी।पिछले दिनों माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली थी तब केरल इकाई के सचिव विजयन ने कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी लेनिनवादी सिध्दांतों से भटकने के खिलाफ चेतावनी दी थी और क्रांतिकारी राह छोड़कर धर्म की तरफ बढ़ने के खिलाफ आगाह किया था। राजनीतिक हलकों में यही माना जा रहा है कि माकपा अपने धार्मिक कामरेडों को लेकर दुविधा में है और कोई स्पष्ट नीति नहीं बना पा रही है।
(साभार: जनसत्ता, 18 अक्टूबर,2007)

Friday, October 10, 2008

हिंदू धर्म में वापस लौटने वाले भी कम नहीं


कटक. उड़ीसा में ईसाई मिशनरियां जहां जबरन धर्मातरण करा रही हंै, वहीं हिंदू धर्म में लौटने वालों की संख्या भी कम नहीं है। शुद्धिकरण प्रक्रिया अपना कर वे मंदिरों में माथा टेक रहे हैं और प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। उनके घरों पर भगवा झंडे लहराने लगे हैं। हिंदू बने सीमान नायक ने बताया कि उसने मंदिर का चावल और घी से बना प्रसाद खाया और भगवान के सामने माथा टेका। हालांकि मिशनरियों का आरोप है कि ईसाइयों को जबरन हिंदू धर्म में वापस किया जा रहा है। कुछ प्रभावितों का भी आरोप है कि जान का भय दिखा उन्हें वापस हिंदू धर्म में लाया गया है। लेकिन पूर्व पुलिस महानिदेशक व हिंदू नेता अशोक साहू कहते हैं कि बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। समस्या की जड़ ईसाइयों द्वारा किया जा रहा धर्मातरण है।

धोखाधड़ी से धर्म परिवर्तन कराना और शांति की कामना करना दोनो एक साथ संभव नहीं है। आदिवासी बहुल कंधमाल जिला ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समय से ही मिशनरी गतिविधियों के कारण विवादों में रहा है। 1991 से 2001 के बीच ईसाई आबादी में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। कंधमाल में ईसाई जनसंख्या दस प्रतिशत है। जबकि पूरे देश में दो प्रतिशत है। भारत के अनेक हिस्सों में धर्मातरण का मुद्दा हमेशा से विवादों में रहा है। धर्म परिवर्तन का यह युद्ध दोनों धर्मो के मानने वालों के दिल और दिमाग में बस गया है।

अनेक हिंदू मानते हैं कि ईसाई मिशनरियां गरीब हिंदुओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और पैसे की सुविधा का लोभ दिखा कर उनका धर्मातरण करती है। उड़ीसा के एक अखबार के संपादक प्रशांत पटनायक का मानना है कि गरीबों और आदिवासियों को सरकार की ओर से न्यूनतम सुविधाएं ही मिली हैं। इसलिए यहां धर्मातरण का रास्ता स्वाभाविक और सरल है। उत्कल विश्र्वविद्यालय के एक प्रोफेसर बसंत मलिक कहते हैं कि हिंदू और ईसाई रूढि़वादियों के लिए कंधमाल एक प्रयोगशाला बन गया है। बताते चलें कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में वापसी का अभियान चलाया था। अगस्त माह में उनकी हत्या के बाद यहां जारी हिंसा सांप्रदायिक स्वरूप ले चुकी है।
साभार : रायटर

Monday, October 6, 2008

मार्क्सवादियों की हिंदी मंडली


शंकर शरण
किसी संगोष्ठी में एक जाने-माने हिंदी मार्क्सवादी ने कहा कि दुनिया में हर जगह सबसे बड़े राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट ही हुए हैं। यह भी कि हर राजनीतिक प्रणाली तानाशाही होती है अत: कम्युनिस्ट शासनों को अलग से तानाशाही कहना ठीक नहीं। उनके अनुसार मार्क्सवाद का लक्ष्य वही था जो पहले भारतीय शास्त्रों में सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:... के रूप में कहा गया। उन्होंने दस मिनट के अंदर ऐसी अनेक बेजोड़ बातें कहीं। इससे पता चलता है कि आखिर हिंदी वाले मार्क्सवादी कैसे बिना किसी शंका-शर्म के मार्क्सवाद का बिल्ला आज भी लहराते हैं क्योंकि उनकी मानसिकता भयंकर अंधविश्वास और घोर अज्ञान में डूबी है। वे मार्क्सीय विचार का म नहीं जानते, मगर प्रतिष्टिंत मार्क्सवादी हैं! इनके ही भरोसे हिंदी के विद्यार्थी मार्क्सवादी या उसके हमदर्द बनते रहे। इस तरह यह अज्ञानी संप्रदाय हिंदी समाज को डुबा रहा है।-- यह बड़ी मोटी सी बात है कि इस्लाम की तरह मार्क्सीय विचार में भी अंतर्राष्ट्रीयतावाद एक मूल सिध्दांत है।
इसमें भी राष्ट्रवाद को सदैव एक दोष या भटकाव माना गया। इसीलिए कम्युनिस्टों की आपसी बहस में राष्ट्रवादी कहलाना गाली जैसा रहा है। कार्ल मार्क्स के शब्दों में, मजदूरों का कोई देश नहीं होता। जब देश ही नहीं, तो देशभक्ति कैसी। लेनिन ने द्वितीय इंटरनेशनल को खारिज कर 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल इसीलिए बनाया था क्योंकि उनके ख्याल में यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियां राष्ट्रवादी हो गई थीं। पश्चिमी में अपने देश के खिलाफ सोवियत संघ के लिए जासूसी करने वाले अधिकांश लोग संबंधित देशों के कम्युनिस्ट ही थे। भारत में भी, कम्युनिस्टों ने 1942 में राष्ट्रीय आंदोलन से द्रोह एवं अंग्रेजों से सहयोग सोवियत संघ को मदद पहुँचाने की चाह से किया। फिर 1943 में (मुस्लिम आत्मनिर्णय का अधिकार कह कर) भारत के विभाजन का मौलिक सिध्दांत कम्युनिस्ट पार्टी ने ही दिया था। उसके लिए गढ़ी गई विस्तृत अधिकारी थीसिस क्या राष्ट्रवाद का दस्तावेज था।
उस एक थीसिस ने भारत को जितना तबाह किया, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं, किंतु हिंदी मार्क्सवादी इस घोर-सांप्रदायिक अतीत के बावजूद धर्म-निरपेक्ष हैं! भारतीय कम्युनिस्टों के लिए 1942 और 1943 कोई पहला या अंतिम राष्ट्र-विरोधी कारनामा नहीं था। उससे पहले भी उनकी नीतियाँ कोमिंटर्न या स्तालिन के कहने पर तय होती थीं।-- राष्ट्रीय नेताओं या कांग्रेस का चरित्र हमारे कम्युनिस्ट अपनी अक्ल से नहीं, अपने रूसी या ब्रिटिश कामरेडों की बुध्दि से तय करते रहे। पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में ही कम्युनिस्ट भी काम करते थे। उससे वे निकाले क्यों गए। इसलिए कि कोमिंटर्न की लाइन के अनुरूप वे छल से कांग्रेस का नेतृत्व हड़पने के लिए उद्योग कर रहे थे, न कि राष्ट्रीय आंदोलन को मदद देने के लिए। इसी तरह 1962 में चीनी आक्रमण का बचाव करने के लिए ही कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई। जो लोग अलग होकर माकपा (सीपीएम) बने, उन्होंने कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीयता के नशे में नेहरू सरकार को ही दोषी बताया। यह न मानने के कारण ही भाकपा (सीपीआई) को राष्ट्रवादी भटकाव की शिकार दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट पार्टी कहकर दो दशक तक निंदित किया गया। वस्तुत: पूरे एशिया में कम्युनिस्ट आंदोलन का ग्राफ दिखाता है कि राष्ट्रवादी भावनाओं से दूर होने के कारण ही वह लोगों की सहानुभूति खोता गया। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने देश के राष्ट्रवादियों के साथ केवल एक छोटी अवधि तक ही रहीं। वह भी कोमिंटर्न के इशारे पर ही। इसी दौर में उन्हें कुछ लोकप्रियता भी मिली। लेकिन चूँकि राष्ट्रवाद उनकी निष्ठा नहीं थी, इसलिए जैसे-जैसे यह साफ होता गया, लोग उनसे दूर होते गए।-- कम्युनिस्टों को देश से कभी मतलब न था, उन्हें हर हाल में केवल विश्व में साम्यवादी सत्ता के लिए जोड़-तोड़ षडयंत्र करना था।
इसीलिए वे देश की चिंता से कभी एकाकार नहीं हुए। अंतर्राष्ट्रीयतावादी फिक्र में उनका मुख्य शत्रु अमेरिका और एकमात्र पितृभूमि सोवियत संघ या लाल चीन था। अपना देश उनकी गिनती में हमेशा बाद में आता था। सोवियत संघ के समीकरणों से उनकी नीतियाँ बनती थीं, न कि अपने देश-हित के लिए। जब बार-बार अनुभव से जनता ने यह समझ लिया, तब से लोकतांत्रिक देशों में कम्युनिस्टों की स्थिति एक सीमित संप्रदाय की हो गई। जिस पर देश-हित के लिए कभी भरोसा नहीं किया जा सकता। केवल भारतीय कम्युनिस्टों ने मुस्लिम आत्मनिर्णय के नाम पर देश को नहीं तोड़ा। जर्मनी, कोरिया और यमन में भी उन्होंने अपने-अपने देशों का विखंडन किया। स्पष्टंत: उनके लिए वर्ग-संघर्ष के समक्ष राष्ट्रीय एकता, अखंडता या सहमति का कोई अर्थ न था। मगर सैध्दांतिक, व्यावहारिक तथ्यों, अनुभवों से अनजान हिंदी का मार्क्सवादी कम्युनिस्टों को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मान उनका भक्त बना हुआ है! उसके लिए सबका कल्याण ही मार्क्सवाद है। उसके लिए निजी संपत्ति का खात्मा, पूँजीपति वर्ग का विनाश, वर्ग-युध्द, क्रांतिकारी हिंसा आदि संकल्पनाओं का अस्तित्व नहीं। कितनी हैरत की बात है कि जो सिध्दांत डंके की चोट पर मानवता के एक हिस्से को खूँरेजी से मिटाने की बात करता है उसे कोई सबका कल्याण चाहने वाला बताए! 1989 में पूर्वी यूरोप में जनता ने तमाम कम्युनिस्ट तानाशाहियों को रातो-रात गद्दी से खींच उतारा। उनसे लोगों को कितनी घृणा थी, इसके रोचक दृश्य सारी दुनिया ने टेलीविजन पर देखे, मगर हिंदी मार्क्सवादी के लिए सभी शासन तानाशाही हैं।-- हिंदी मार्क्सवादी के लिए सभा-संगठन की आजादी, मुक्त प्रेस, स्वतंत्र न्यायालय, वयस्क मताधिकार आदि के होने या न होने में कोई अंतर नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में मार्क्सवादी मंडली हर कहीं, हर विषय पर अनर्गल प्रवचन देती दिखती है। उसे किसी चीज को जानने की जरूरत नहीं। बस उसके बारे में कुछ-न-कुछ मान लेने की जरूरत है।
कुछ न जानकर भी सर्व-ज्ञानी होने का अंदाज- ऐसा विचित्र दृश्य हिंदी मार्क्सवादी जगत के सिवा अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने अपनी सदिच्छाओं को मार्क्सवादी पर आरोपित कर उसे बाजार में चलाया, लेकिन जैसा कि निर्मल वर्मा ने कहीं लिखा है कि जिन्होंने मार्क्स, लेनिन आदि के लेखन को सचमुच पढ़ने-समझने का कष्टं किया, वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन से दूर होते गए। हिंदी बौध्दिकता में आज भी मार्क्सवाद की प्रतिष्ठा का रहस्य इसी टिप्पणी में छिपा हुआ है।लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

Wednesday, October 1, 2008

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्‍ठा, अंतिम भाग


प्रो ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है अंतिम भाग-

मूल्याधारित राजनीतिमूल्य का अर्थ है यह दृष्टि या विवेक कि क्या सही है और क्या गलत है, क्या महत्वपूर्ण है और क्या महत्वहीन, क्या मूल्यवान है, ग्राह्य है, वांछनीय है, क्या मूल्यहीन है, अग्राह्य है, अवांछनीय है। मूल्य उन उच्च मानदण्डों का नाम है जिनके पालन से श्रेष्ठता का सृजन होता है, आदर्शों का निर्माण होता है। मूल्य वह विवेक दृष्टि है जो अच्छे और बुरे का बोध जगाती है। जो अच्छा है उसका आचरण करने और जो बुरा है उससे निवृत्त होने की प्रेरणा देती है। संक्षेप में श्रेष्ठता का मानदण्ड मूल्य कहलाते हैं।राजनीति का क्षेत्र सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के लिए जिन मानदण्डों का पालन ज़रूरी है, वे ही मूल्य हैं। भारतीय जनता पार्टी राजनीति में उच्च मानदण्डों के पालन के प्रति प्रतिबध्द है। मूल्यों के आग्रह के कारण ही किसी समय राजनीति, राजनेता और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त था। मूल्यों का आग्रह छूट जाने से, राजनीति विकृत हो गई और राजनेता तथा राजनैतिक कार्यकर्ता की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंची है। हमें राजनीति को पुन: मूल्यों पर अधिष्ठित करने की अपनी प्रतिबध्दता को सुदृढ़ करना होगा।भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण।

भाजपा मात्र एक राजनीतिक दल नहीं है। यह सिध्दान्तों, विचारधाराओं और मान्यताओं पर आधारित एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य है सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति का तात्कालिक उद्देश्य था देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त करना, भारत माता के पाँव में पड़ी बेड़ियों को काटना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का उद्देश्य है राष्ट्रीय विकास, पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय अभ्युदय। इसी से विश्व के देशों की मालिका में भारत को गौरवपूर्ण स्थान मिल सकेगा। कहीं स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति अपने इस महान ध्‍येय से भटक तो नहीं गई है? श्री दीनदयालजी ने सलाह दी थी कि 'राष्ट्र को क्षीण करने वाली राजनीति को त्याज्य ही मानना चाहिए। उनका मत था कि 'राजनीति अन्तत: राष्ट्र के लिए ही होती है। राष्ट्र का विचार त्याग दिया-अर्थात् राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता का विचार ही नहीं किया- तो राजनीति किस काम की'?आज के राजनीतिक दलों के व्यवहार और कार्यकलापों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि राजनीति राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के ध्‍येय से विमुख होकर सत्ताभिमुखी हो गई है। राष्ट्रसेवा का स्थान सत्ता की आंकाक्षा और सत्ता के भोग ने ले लिया है। इसमें से अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा, दलबदल, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, विशेषरूप से सार्वजनिक जीवन के उच्च स्थानों पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सहकार नहीं विरोध, सामंजस्य नहीं वैमनस्य, रचना नहीं विध्‍वंस, तात्कालिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति, वोट बैंक की राजनीति जिसके चलते जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर सामाजिक विभाजन को तीव्र किया जाता है, तुष्टीकरण की विभाजनकारी राजनीति। उक्त विकृतियों के कारण आज भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भारी कमी आ गई है।भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें।

भाजपा प्रचलित विकृत राजनीतिक संस्कृति के स्थान पर वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यकर्ताओं का संस्कार और शिक्षण आवश्यक है। भाजपा ने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और संस्कार की व्यवस्था की है ताकि वे निजी और सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आग्रह रखें। भाजपा की पहचान एक अनुशासित कैडर वाली पार्टी के रूप में होती आई है। आज अनुशासन में कुछ शिथिलता दिखाई पड़ती है, जो भाजपा के कर्णधारों के लिए चिन्ता का विषय है। अनुशासन के पहले जैसे ऊँचे मानदण्डों का आग्रह बढ़ाने की दिशा में ठोस उपाय किए जा रहे हैं। भाजपा दल-बदल की विरोधी हैं, क्योंकि दलबदल से जहां एक ओर राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है, वहीं यह मतदाताओं से विश्वासघात भी है। इसके लिए हमारे चुनाव कानूनों में सुधार किए जाने की ज़रूरत है। भारतीय राजनीति में धनबल, बाहुबल और अपराधी तत्वों का प्रभाव बढ़ा है।परिणामत: चुनाव भयमुक्त और निष्पक्ष वातावरण में नहीं हो पाते और इनसे उपजा जनादेश कई बाद छद्म जनादेश होता है। इसके लिए जहाँ एक ओर राजनीतिक दलों में आमसहमति से आचार संहिता विकसित किया जाना जरूरी है, वहीं चुनाव कानूनों में आवश्यक सुधार करने होंगे। भारतीय राजनीति की एक विकृति अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन है। राजनीतिक गठबंधन समय की आवश्यकता होने पर भी, ये कुछ सिध्दान्तों और मर्यादाओं पर आधारित होने चाहिए। चुनाव परिणाम के बाद महज़ सत्ता प्राप्त करने के लिए किए गए सिध्दान्तविहीन संगठन जहां टिकाऊ नहीं होते वहाँ वे मतदाता से भी छल होता है। यूपीए सरकार कांग्रेस के कुछ अन्य दलों और वामपंथी दलों से गठबन्धान का परिणाम है। लेकिन वामपंथी दल और कांग्रेस में न आर्थिक नीतियों को लेकर और न ही वैदेशिक नीतियों को लेकर सामंजस्य है। उलटे वामपंथी दल यूपीए सरकार पर न्यूनतम सांझा कार्यक्रम से भटक जाने का आरोप लगाते रहते हैं। ऐसे अवसरवादी गठबन्धनों से लोकविश्वास आहत होता है। सार्वजनिक जीवन में उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के प्रसंग अक्सर समय-समय पर सामने आते रहते हैं। इन प्रसंगों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने के बजाय अक्सर इनकी जांच को अनावश्यक रूप से वर्षों-वर्षों लटकाया जाता है और कार्रवाई के नाम पर लीपापोती की जाती है। भ्रष्टाचार विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। कांग्रेस और कुछ अन्य सत्ताालोलुप दल आरक्षण की राजनीति और अल्संख्यक तुष्टीकरण को हवा देने में लगे रहते हैं। राष्ट्रीय हित गौण और दलीय हित प्रमुख हो गए हैं। जातीय और सामाजिक विभाजन की राजनीति की प्रचण्ड प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस अन्धी प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी हो रही है- फिर वह चाहे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सरोकार हों या आंतरिक सुव्यवस्था के सरोकार। दलीय हितों की पूर्ति के लिए लोकतान्त्रिक परम्पराओं और संस्थाओं का अवमूल्यन करने से परहेज़ नहीं किया जाता, राज्यपाल के पद का दुरूपयोग कर सरकारें गिराई जाती हैं, न्यायपालिका और संसद के निर्णयों और भावनाओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित किया जाता है, कानून में रातोंरात संशोधन या परिवर्तन कर न्यायपालिका के सुविचारित निर्णयों को प्रभावहीन बना दिया जाता है। उक्त विकृतियों के चलते मतदाताओं का राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग होता जा रहा है। इस स्थिति का समय रहते कठोरतापूर्वक उपचार करना ज़रूरी है। पटरी से उतर गई राजनीतिक संस्कृति को पुन: पटरी पर बैठाने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने को शुचिता के मूल्य के प्रति प्रतिबध्द करें।

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्ठा- भाग-4


प्रो ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतों में भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6 अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है चौथा भाग-
सकारात्मक पंथनिरपेक्षताभारत बहुधार्मिक-बहुपांथिक देश है। इसमें विविध विश्वासों और आस्थाओं वाले लोग रहते है। उपासना पध्दतियों की बहुलता है। ऐसे समाज को धार्मिक उदारता का दृष्टिकोण अपनाकर ही एक रखा जा सकता है। धार्मिक उदारता पंथनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म का आधारभूत तत्व है। लेकिन सेकुलरिज्म शब्द के अर्थ को लेकर विभ्रम व्याप्त है।सेकुलरिज्म की एक व्याख्या धर्म के विरोध के रूप में की जाती है। यह व्याख्या लौकिकता को स्वीकार करती है और आध्‍यात्मिकता का निषेध करती है। ईश्वरीय सत्ता या अव्यक्त सत्ता को नकार कर लौकिक सत्ता और मानव सत्ता का स्वीकार सेकुलरिज्म माना जाता है। धर्म के अस्वीकार वाली सेकुलरिज्म की कल्पना भाजपा को स्वीकार नहीं।यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है।
यूरोप में चर्च और राज्य के बीच टकराव में से सेकुलरवाद का उद्भव हुआ। राज्य ने चर्च द्वारा लौकिक या पार्थिव मामलों में दखल के विरूध्द आवाज़ उठाई। इसलिए सेकुलरवाद का अर्थ हुआ राज्य की धर्मनिरपेक्षता। इसके विपरीत भारत में धर्म को कर्तव्य या नीति के रूप में स्वीकार किया गया और इसे जीवन के सभी अंगों के लिए ग्राहय माना गया, यहां तक कि राज्य के लिए भी। भारत की सोच धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं धर्माधारित राज्य की रही है। सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या धर्म के मामले में राज्य की तटस्थता के रूप में की जाती है। राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए, राज्य को धार्मिक मामलों से स्वयं को अलग रखना चाहिए, इत्यादि। सेकुलरिज्म की एक अन्य व्याख्या यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान व्यवहार करे, राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हों और राज्य विभिन्न धार्मिक समुदायों में भेदभाव न करे।हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है। इसमें विविध धर्माचरणों, विश्वासों और उपासना पध्दतियों का स्वीकार है। एक ईश्वर को पाने के, उस तक पहुंचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, ईश्वर की उपासना के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही तत्व को विद्वान् भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं-- एकं सद्विप्रा बहुध वदन्ति'। भारतीय संस्कृति के इस धार्मिक उदारवाद के स्वभाव का ही परिणाम है कि भारत पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहां धार्मिक मामलों में न भेदभाव किया जाता रहा है और नहीं धार्मिक आधार पर किसी धार्मिक समुदाय का उत्पीड़न।किन्तु सेकुलरिज्म के राजनीतिक इस्तेमाल ने इसका रूप विकृत कर दिया है। सेकुलरिज्म के नाम पर वोट की राजनीति का चलन बढ़ता गया है। इसके लिए मुख्यत: कांग्रेस पार्टी का एक वर्ग, कम्युनिस्ट और कुछ अन्य हिन्दू विरोधी ताकतें जिम्मेदार हैं। इनका सकुलरिज्म हिन्दू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण मात्र है। मुस्लिम वोट पर नज़र रखने वाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिए हिन्दू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता है, फिर वे हिन्दू विरोध में चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न बह जाएं। हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं।
हमारे देश में ऐसे तत्व भी हैं, जिन्हें वंदे मातरम् गाना या सरस्वती वंदना करना धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन लगता है। ये ताकतें इस्लामी कट्टरवाद को अनदेखा कर देती हैं, बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकारों की उपेक्षा करती है, अल्पसंख्यक समाज के विशेषाधिकारों का समर्थन करती हैं और इस प्रकार समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में विभाजित कर देती हैं। इन्हें सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता ही दिखायी पड़ती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति ये आखें बंद किए रहते हैं। सेकुलरिज्म का लबादा ओढ़े ये छद्म सेकुलरिस्ट घोर साम्प्रदायिक हैं। कश्मीर की अखंडता का प्रश्न हो या बंगलादेशी घुसपैठ और इस्लामी आतंकवाद, ये ऐसे राष्ट्रीय हित और सुरक्षा के प्रश्नों को भी साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही देखते हैं। इनकी धर्मनिरपेक्षता छद्म धर्मनिरपेक्षता है, सत्ता प्राप्ति का शार्टकट है। ये ताकतें हिन्दू भावनाओं को आहत करने का कोई मौका नहीं चूकती। हिन्दू धर्म, लोकाचार तथा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित किसी भी मान्यता या विश्वास को साम्प्रदायिक घोषित कर देती हैं। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की धर्मनिरपेक्षता का धार्मिक सहिष्णुता से कोई वास्ता नहीं। ये घोर असहिष्णु हैं।भारतीय जनता पार्टी जिस सेकुलरिज्म में निष्ठा रखती है उसमें पंथीय राजतन्त्र या थियोक्रेसी के लिए कोई स्थान नहीं है। भाजपा की सेकुलरिज्म की कल्पना का अर्थ हैं सभी धर्मों का आदर, सभी को न्याय, तुष्टीकरण किसी का नहीं। भाजपा की यह मान्यता भारत के प्राचीन चिन्तन और परम्परा पर आधारित है।

भाजपा की विचारधारा- पंचनिष्ठा, भाग-3


प्रो. ओमप्रकाश कोहली
भारतीय जनता पार्टी आज देश की प्रमुख विपक्षी राजनीतिक पार्टी हैं। सात प्रांतोंमें भाजपा की स्वयं के बूते एवं 5 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकारें है। 6अप्रैल, 1980 को स्थापित इस दल ने अल्प समय में ही देशवासियों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पहले, भाजपा के विरोधी इसे ब्राह्मण और बनियों की पार्टी बताते थे लेकिन आज भाजपा के ही सर्वाधिक दलित-आदिवासी कार्यकर्ता सांसद-विधायक निर्वाचित है। इसी तरह पहले, विरोधी भाजपा को उत्तर भारत की पार्टी बताते थे और कहते थे यह कभी भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती है। वर्तमान में भाजपा ने दक्षिण भारत में भी अपना परचम फहरा दिया है। भाजपा में ऐसा क्या है, जो यह जन-जन की पार्टी बन गई हैं, बता रहे है भाजपा संसदीय दल कार्यालय के सचिव प्रो ओमप्रकाश कोहली। पूर्व सांसद श्री कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। निम्न लेख को हम यहां पांच भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्तुत है तीसरा भाग-भारतीय जनता पार्टी के कार्य की प्रेरणा पार्टी संविधान में उल्लिखित पंच निष्ठाएं हैं: राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय एकतालोकतंत्रगांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापनासकारात्मक पंथनिरपेक्षतामूल्य आधारित राजनीतिसमतामूलक समाज की स्थापनाविश्व के विभिन्न चिन्तकों ने ऐसे समाज की स्थापना का विचार किया है जो शोषणमुक्त हो, और जिसमें मानव-मानव के बीच समानता हो। भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही ऐसे समाज की कामना करती आई है जिसमें सभी सुखी हों, रोगमुक्त एवं स्वस्थ हो, सबका कल्याण हो। समतामूलक समाज की स्थापना की दो दृष्टियां रही हैं- आध्‍यात्मिक और भौतिक।
गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है। आध्‍यात्मिक दृष्टि सभी प्राणियों में, जड़ चेतन में एक परमसत्ता की विद्यमानता को स्वीकार करती है - 'सर्वं खलु इदं ब्रह्मं,' फिर मानव-मानव में अन्तर क्यों? भोग की अधिकता ही विषमता और शोषण का कारण बनती है। संयम का आचरण कर हम विषमता और शोषण को मिटा सकते है अथवा कम कर सकते हैं। गांधीजी ने इच्छाओं और आवश्यकताओं के बहुलीकरण का विरोध किया है। उपनिषद् ने संयमित और मर्यादित भोग को आदर्श जीवन का लक्षण माना है। त्याग भावना के बिना मर्यादित भोग सम्भव नहीं। उपनिषद त्यागपूर्वक भोग की सलाह देते हैं-- त्यक्तेन भुंजीथ:।शोषणमुक्त समतायुक्त समाज की स्थापना मानव समाज के समक्ष निरन्तर एक चुनौती रही है। मार्क्‍स और उनके अनुयायियों ने निजी सम्पत्ति को शोषण और विषमता का कारण बताया और इसका उपचार बताया सम्पत्ति पर से निजी स्वामित्व की समाप्ति और उस पर राज्य का स्वामित्व। मान लिया गया कि उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व होने से व्यक्ति के हाथ में पूंजी का संचय नहीं होगा और शोषण भी नहीं हो सकेगा। इस व्यवस्था में राजशक्ति द्वारा कठोर दमनकारी उपायों का अवलम्बन लिया गया। सारी शक्तियां राज्य के हाथ में केन्द्रित होने से राज्य क्रूर, निर्मम और दमनकारी हो गया। इस व्यवस्था ने व्यक्ति का पूर्ण तिरस्कार किया।
पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।उधर इसकी पूर्ववर्ती व्यवस्था पूंजीवाद ने व्यक्ति द्वारा अमर्यादित उत्पादन, संचयन और उपभोग के सिध्दान्त को स्वीकार किया। परिणाम हुआ व्यक्ति द्वारा आत्यान्तिक उपभोग और उसमें से जन्मी विषमता, शोषणकारी व्यवस्था और साम्राज्यवाद। इसी की प्रतिक्रिया में मार्क्‍सवाद का आविर्भाव हुआ था जिसने व्यक्ति की स्वायत्त सत्ता को पूर्णत: नकार दिया था और राज्य को सर्वसत्ता का अधिष्ठान बनाकर सर्वसत्तात्मक राज्य व्यवस्था को जन्म दिया था। यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही उत्पीड़नकारी सिध्द हुई।गांधीजी भी मानव समाज में व्याप्त शोषण को मिटाकर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने व्यक्ति के स्वायत्त व्यक्तित्व को नहीं नकारा लेकिन व्यक्ति की चेतना के उन्नयन और समाजीकरण पर बल दिया जिसका अर्थ है व्यक्ति का सामाजिक दायित्वबोध। व्यक्ति जिस समाज में रहता है उसके प्रति उसका नैतिक कर्तव्य या दायित्व है। इसे ममत्व भी कह सकते हैं। यही आत्मविस्तार है। मां अपनी संतान के कल्याण के प्रति जिस भावना से प्रेरित होती है वह भावना ममता कहलाती है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े, दलित, शोषित, अस्पृश्य और वंचित-निर्धन समाज बन्‍धुओं के प्रति गांधीजी ने इसी ममता भावना को उद्दीप्त करने का प्रयत्न किया। गरीब की ऑंखों से ऑंसू पोंछना उनकी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की प्रेरणा बनी। उन्होंने दरिद्र में नारायण के दर्शन किए और दलितोध्दार और दरिद्रोध्दार को ईश्वरीय कार्य माना। गांधीजी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करूणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता, ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंने नर सेवा को नारायण सेवा माना।गांधीजी ने ट्रस्टीशिप के सिध्दान्त पर ज़ोर दिया, जिसका अर्थ वास्तव में अपने लिए मर्यादित उपभोग और शेष सम्पत्ति का समाजहित के लिए उपयोग था। इसमें व्यक्ति के सम्पत्ति के उपार्जन पर कोई सीमा या रोक नहीं, लेकिन उपार्जित सम्पत्ति के अपने लिए उपभोग पर रोक की व्यवस्था थी। यह रोक किसी वाह्य शक्ति द्वारा, राजसत्ता द्वारा लागू न होकर व्यक्ति की अन्त:प्रेरणा, नैतिक चेतना, सामाजिक दायित्व बोध द्वारा लागू होगी, ऐसी विचार गांधीजी ने रखा। गाँधीजी के सामाजिक-आर्थिक चिन्तन का अधिष्ठान भारतीय संस्कृति का मूलाधार अध्‍यात्मवाद ही है।श्री दीनदयालजी ने जिस एकात्ममानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया और जिसे भाजपा ने अपने संगठन के दर्शन के रूप में स्वीकार किया वह व्यक्ति और समाज को परस्पर विरोधी सत्ता नहीं बल्कि अन्योन्याश्रित सत्ता मानता है। वस्तुत: पूंजीवाद और समाजवाद के एकांगी समाजदर्शन से मानव कल्याण होता न देखकर श्री दीनदयालजी ने एकात्ममानववाद के रूप में ऐसे समग्र दर्शन का प्रतिपादन किया जो मानव का समग्र विचार करता है, उसके शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा सभी पक्षों का समावेश करता है। यह दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और मानवता को एक दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि अन्योन्याश्रित और पूरक मानता है। यह दर्शन संघर्ष और टकराव पर आधारित नहीं है, परस्पर पूरकता पर आधारित है। इसकी मूल दृष्टि आत्मविस्तार की आध्‍यात्मिक दृष्टि है। व्यक्ति और समष्टि एक ही चेतना से व्याप्त है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:।' जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में मनु से कहलवाया है:हम अन्य न और कुटुम्बीहम केवल एक हमीं हैंतुम सब मेरे अवयव होइसमें कुछ भी न कमी है।यह समरसता की दृष्टि है, एकरूपता की दृष्टि है, अविच्छिन्नता की दृष्टि है, अभेद और एकात्म की दृष्टि है।एकात्ममानववाद दर्शन का मूल तत्व है समरसता।
भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है।भाजपा ने सामाजिक प्रश्नों के प्रति समरसता का दृष्टिकोण अपनाया है। यह दृष्टिकोण भाजपा कार्यकर्ताओं को समाज के सभी वर्गो को, सभी जातियों को, सभी पंथों को और विशेष रूप से वंचित, दलित और अस्पृश्य कहे जाने वाले तथा वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता और ममत्व का भाव रखने, उनकी सेवा और कल्याण में प्रवृत्त होने और अन्त्योदय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है। यही दृष्टिकोण भाजपा को समाज के कमज़ोर वर्गो के प्रति बन्धुभाव, ममत्वभाव अपनाने और उनके कल्याण के लिए रचनात्मक कार्यो, सेवा कार्यो में, प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है।गांधीजी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन और दीनदयालजी के एकात्ममानववाद से प्राप्त दृष्टि के कारण ही भाजपा सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखती है। पंचायती राज को सुदृढ़ करना, विकास के केन्द्र में गांव को और कमज़ोर वर्गो को रखना और केन्द्र-राज्यों की संघीय व्यवस्था को सुदृढ़ करना इसी निष्ठा की अभिव्यक्तियां हैं। यह निष्ठा सामाजिक सौहार्द और सद्भावना को प्रेरित करने वाली और असमानता तथा शोषण मिटाने वाली है।
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है