Wednesday, October 31, 2012

भारतीय समाज, विविधता, अनेकता एवं एकात्मता


डॉ. सौरभ मालवीय
भारत का समाज अत्यंत प्रारम्भिक काल से ही अपने अपने स्थान भेद, वातावरण भेद, आशा भेद वस्त्र भेद, भोजन भेद आदि विभिन्न कारणों से बहुलवादी रहा है। यह तो लगभग वैदिक काल में भी ऐसा ही रहा है अथर्ववेद के 12वें मण्डल के प्रथम अध्याय में इस पर बड़ी विस्तृत चर्चा हुई है एक प्रश्न के उत्तर में ऋषि यह घोषणा करते हैं कि
जनं विभ्रति बहुधा, विवाचसम्, नाना धर्माणंम् पृथ्वी यथौकसम्।
सहस्र धारा द्रवीणस्यमेदूहाम, ध्रिवेन धेनुंरनप्रस्फरत्नी।।
अर्थात विभिन्न भाषा, धर्म, मत आदि जनों को परिवार के समान धारण करने वली यह हमारी मातृभूमि कामधेनु के समान धन की हजारों धारायें हमें प्रदान करें।
विभिन्नता का यह स्तर इतना गहरा रहा कि केवल मनुष्य ही नहीं अपितु प्रकृति में इसके प्रवाह में चलती रही तभी तो हमारे यहां यह लोक मान्यता बन गयी कि कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर वाणी।
यहां वाणी दो अर्थों में प्रयोग होता है। वाणी एक बोली के अर्थ में और पहनावे के अर्थ पानी भी दो अर्थी प्रयोग एक सामाजिक प्रतिष्ठा के अर्थ में दूसरा जल के।
इस विविधता में वैचारिक विविधता तो और भी महत्वपूर्ण है। संसार में पढ़ाये जाने वाले छः प्रकार के दर्षन का विकास भारत में ही हुआ कपिल, कणाद, जैमिनी, गौतम, प्रभाकर, वैशेषिक आदि अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी विचार तरणियां (शृंखला) इसी पवित्र भूमि पर पली बढ़ी और फली फूली वैदिक मान्यताओं का अद्वैत जब कर्मकाण्डो के आडम्बर से घिर गया तो साक्य मूनि गौतम अपने बौद्ध दर्शन से समाज को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया।
उनके कुछ वर्षों बाद केरल एक विचारक और दार्शनिक जगत्गुरु शंकराचार्य ने अपने अद्वैत दर्शन के प्रबल वेग में बुद्धवाद को भी बहा दिया। और इतना ही नहीं वरन पूरे भारत में वैदिक मत की पुर्नप्रतिष्ठा कर दी। लेकिन जगत गुरु शंकर का यह अद्वैत की विभिन्न रूपों में खण्डित होता रहा। इस अद्वैत दर्शन को आचार्य रामानुज ने विशिष्ट अद्वैत के रूप में खण्डित कर दिया महावाचार्य ने द्वैत वाद के रूप में खण्डित कर दिया, वल्लभाचार्य ने द्वैत अद्वैत के रूप में खण्डित कर दिया तिम्वाकाचार्य ने द्वैतवाद के रूप में खण्डित कर दिया और अन्त में चैतन्य महाप्रभु ने अचिन्त्य भेदा भेद के रूप में खण्डित कर दिया। इस खण्डन-मण्डन और प्रतिष्ठापन की परम्परा को पूरा देश सम्मान के साथ स्वीकारता रहा। यहां तक कि हमने चार्वाक को भी दार्शनिको की श्रेणी में खड़ा कर लिया लेकिन वैदिकता के विरोध में कोई फतवा नहीं जारी किया गया।
यहां तो संसार ने अभी-अभी देखा है कि शैटनिक वरसेज के साथ क्या हुआ बलासफेमी की लेखिका डॉ. तहमीना दुरार्ती को देश छोड़ कर भागना पड़ा, तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा से उन लोगों को लज्जा भी नहीं आती और नसरीन के लिए उसकी मातृभूमि दूर हो गयी है। लेकिन भारत की विविधता हरदम आदरणीय रही है। इसी का परिणाम रहा है कि यहां 33 करोड़ देवी-देवता बने सच में इससे बड़ा लोकतांत्रिक अभियान और क्या हो सकता है हर स्थिति का इसके स्वभाव के अनुरूप उसे पूजा करने के लिए उसका एक आदर्श देवता तो होना ही चाहिए। यही तो लोकतंत्र है।
लेकिन इस विविधता में भी चिरन्तन सत्य के प्रति समर्पण सबके चित्त में सदैव बना रहा। तभी तो भारत जैसे देश में जहां छः हजार से ज्यादा बोलियां बोली जाती हैं वहां गंगा, गीता, गायत्री, गाय और गोविन्द के प्रति श्रद्धा समान रूप से बनी हुई है। केरल में पैदा होने वाला नारियल जब तक वैष्णो देवी के चरण में चढ़ नहीं जाता है तब तक पूजा अधूरी मानी जाती है। आखिर काशी के गंगाजल से रामेश्वरम् महादेव का अभिषेक करने पर ही भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। भारत के अन्तिम छोर कन्याकुमारी अन्तद्वीप में तपस्या कर रही भगवती तृप सुंदरी का लक्ष्य उत्त में कैलाश पर विराजमान भगवान चन्द्रमौलीस्वर तो ही है।
भारत में जो भी आया, वह उसके भौगोलिक सौन्दर्य और भौतिक सम्पन्न्ता से तो अभिभूत हुआ ही, बौद्धिक दृष्टि से वह भारत का गुलाम होकर रह गया। वह भारत को क्या दे सकता था? भौतिक भारत को उसने लूटा लेकिन वैचारिक भारत के आगे उसने आत्म-समर्पण कर दिया। ह्वेन-सांग, फाह्यान, इब्न-बतूता, अल-बेरूनी, बर्नियर जैसे असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण इस सत्य को प्रमाणित करते हैं। जिस देश के हाथों में वेद हों, सांख्य और वैशेषिक दर्शन हो, उपनिषदें हों, त्रिपिटक हो, अर्थशास्त्र हो, अभिज्ञानशाकुंतलम् हो, रामायण और महाभारत हो, उसके आगे बाइबिल और कुरान, मेकबेथ और प्रिन्स, ओरिजिन आॅफ स्पेसीज या दास कैपिटल आदि की क्या बिसात है? दूसरे शब्दों में भारत की बौद्धिक क्षमता ने उसकी हस्ती को कायम रखा।
भारत के इस अखंड बौद्धिक आत्मविश्वास ने उसके जठरानल को अत्यंत प्रबल बना दिया। उसकी पाचन शक्ति इतनी प्रबल हो गई कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे एकचालकानुवर्तित्ववाले मजहबों को भी भारत आकर उदारमना बनना पड़ा। भारत ने इन अभारतीय धाराओं को आत्मसात कर लिया और इन धाराओं का भी भारतीयकरण हो गया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इस्लाम और ईसाइयत भारत आकर उच्चतर इस्लाम और उच्चतर ईसाइयत में परिणत हो गए। धर्मध्वजाओं और धर्मग्रंथों पर आधारित इन मजहबों में कर्मफल और पुनर्जन्म का प्रावधान कहीं नहीं है लेकिन इनके भारतीय संस्करण इन बद्धमूल भारतीय धारणाओं से मुक्त नहीं हैं। भक्ति रस में डूबे भारतीयों के मुकाबले इन मजहबों के अभारतीय अनुयायी काफी फीके दिखाई पड़ते हैं। भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई दुनिया के किसी भी मुसलमान और ईसाई से बेहतर क्यों दिखाई पड़ता है? इसीलिए कि वह पहले से उत्कृष्ट आध्यात्मिक और उन्नत सांस्कृतिक भूमि पर खड़ा है। यह धरोहर उसके लिए अयत्नसिद्ध है। उसे सेत-मेंत में मिली है। यही भारत का रिक्थ है।
सनातन संस्कृति के कारण इस पावन धरा पर एक अत्यंत दिव्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण कठिन तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित इस दिव्य इलेक्ट्रो-मैगनेटिक फील्ड से अत्यंत प्रभावकारी विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण जारी है, इसी से समग्र भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है। भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है।यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले, इसका सतत् प्रयत्न किया जाता है।
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की विराट रहस्यमयता पर जिज्ञासा का जन्म हुआ। सृष्टि अनन्त रहस्य वाली है ही। भारत ने दोनों चुनौतियों को निकट नजदीक से देखा। छोटा-सा मनुष्य विराट सम्भावनाआंे से युक्त है। विराट सृष्टि में अनंत सम्भावनाएं और अनंत रहस्य हैं। जितना भी जाना जाता है उससे भी ज्यादा बिना जाने रह जाता है। सो भारत के मनुष्य ने सम्पूर्ण मनुष्य के अध्ययन के लिए स्वयं (मैं) को प्रयोगशाला बनाया। भारत ने समूची सृष्टि को भी अध्ययन का विषय बनाया। यहां बुद्धि के विकास से ‘ज्ञान’ आया। हृदय के विकास से भक्ति। भक्त और ज्ञानी अन्ततः एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे। भक्त अंत में ज्ञानी बना। भक्त को अन्ततः व्यक्ति और समष्टि का एकात्म मिला। द्वैत मिटा। अद्वैत का ज्ञान हो गया। ज्ञानी को अंत में बूंद और समुद्र के एक होने का साक्षात्कार हुआ। व्यक्ति और परमात्मा, व्यष्टि और समष्टि की एक एकात्मक प्रतीति मिली। ज्ञानी आखिरकार भक्त बना।
हजारों वर्षों से यह परम्परा रही है कि बद्रीधाम और काठमाण्डू के पशुपतिनाथ का प्रधान पुजारी केरल का होगा और रामेश्वरम् और श्रृंगेरीमठ का प्रधान पुजारी काशी का होगा यही तो विविधता में एकता का वह जीवन्त सूत्र है जो पूरे भारत को अपने में जोड़े हुए है। पाकिस्तान स्थित स्वातघाटी के हिंगलाज शक्तिपीठ के प्रति पूरे भारत में समान रूप आस्था और आदर है। तो समग्र हिमालय को पूरा भारत देवताओं की आत्मा कहता है इसी कारण हमारे ऋषियों ने पूरे भारत के पहाड़ों, नदियों और वनों को सम्मान में वेदों में गीत गाये। कैसे कोई भारतीय भूल सकता है उस सिन्धु नदी को जिसके तट पर वेदों की रचना हुई।
विविधता और अनेकता भारतीय समाज की पहचान है। विविधता के कारण ही भारत देष में बहुरूपता के दर्षन होते हैं। लेकिन यही गुण भारतीय समाज को समृ़द्ध कर एक सूत्र में बांधने का कार्य करता है। हो भी क्यों न? क्योंकि हम उस सम्पन्न परपंरा के वाहक हैं जिसमें वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निहित है।

Saturday, January 28, 2012

हिन्दी समाचार पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन

नमस्‍कार। 

जैसा कि आपको विदित होगा गत वर्ष अक्‍टूबर महीने में मैंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता विभाग में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्‍त की। मेरे शोध का विषय है- ''हिंदी समाचार पत्रों में सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद की प्रस्‍तुति का अध्‍ययन।''

इस संबंध में प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर शोध-सारांश प्रकाशित हुआ है। 
कृपया इसका अवलोकन करें। 


सादर; 
सौरभ 

डॉ. सौरभ मालवीय चर्चित मीडिया शख्सियत हैं। उनके व्‍यक्तित्‍व के कई आयाम हैं। अपने छात्र जीवन से ही एक्टिविस्‍ट रहे डॉ. मालवीय प्राध्‍यापक व मीडिया एक्टिविस्‍ट के रूप में मशहूर हैं। उन्‍होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय (मा.च.रा.प.वि.वि.), भोपाल से पत्रकारिता में स्‍नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने के पश्‍चात् यहीं से पत्रकारिता विभाग में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्‍त की। उन्‍हें (मा.च.रा.प.वि.वि.), भोपाल में अध्‍ययन करने और यहीं अध्‍यापन करने का अनुपम सौभाग्‍य प्राप्‍त है। वर्तमान में आप विश्‍वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी का दायित्‍व संभाल रहे हैं। डॉ. मालवीय ने मा.च.रा.प.वि.वि. के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया। उनके शोध का विषय है – ”हिन्दी समाचार पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन।” डॉ. मालवीय का यह शोध बहुचर्चित रहा क्‍योंकि उन्‍होंने मीडिया में साम्‍यवाद और समाजवाद के वर्चस्‍व की तस्‍वीर को तथ्‍यों के साथ प्रस्‍तुत किया एवं राष्‍ट्रवादी पत्रकारिता की जरूरत को रेखांकित किया। अपने शोध में डॉ. मालवीय ने बताया कि भारत में मीडिया की जड़ें तभी सही मायने में सशक्‍त हो पाएंगीं जब इसमें राष्‍ट्रवाद का स्‍वर प्रखर होगा।   
हमें डॉ. मालवीय के मित्र होने का सौभाग्‍य प्राप्‍त है। वे ‘प्रवक्‍ता’ के भी नियमित कंट्रीब्‍युटर हैं। उन्‍होंने जब मुझे अपने शोध सारांश से अवगत कराया तो मैं इससे प्रवक्‍ता के पाठकों को अवगत कराने के लोभ का संवरण नहीं कर पाया। प्रस्‍तुत डॉ. मालवीय के शोध का सारांश.(संजीव) 

हिन्दी समाचार पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन
1- इस शोध का उद्देश्य हिन्दी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विषयवस्तु का तुलनात्मक अध्ययन करना है।
2- पूंजीवाद उत्पादक शक्तियों के स्वामित्व और संचालन की वह पध्दति है जिसके तहत उत्पादक शक्तियों और व्यक्तियों को अपनी क्षमता तथा प्रतिभा के अनुसार पूंजी उत्पादन, संग्रहण, विनियोग और व्यापार पर सामान्यत: कोई प्रतिबन्ध नहीं होता।
3- समाजवाद वह सामाजिक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत जीवन और समाज के सभी साधनाें पर संपूर्ण समाज का स्वामित्व होता है – जिसका उपयोग पूर्ण समाज के कल्याण और विकास की भावना को लक्ष्य करके किया जाता है।
4- साम्यवाद का ध्येय समाज में सर्वहारा और शोषित वर्ग के बीच पूंजी, अवस्था, व्यवस्था और अवसरों की समान उपलब्धता सुनिश्चित करना है।
5- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह परिकल्पना है जिसमें राष्ट्र की रचना का आधार आर्थिक या राजनैतिक न होकर सांस्कृतिक होता है।
6- इस शोध कार्य में कुल 13 राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों और दो प्रमुख राष्ट्रीय पत्रिका सहित कुल 15 पत्र और पत्रिकाओं का अध्ययन किया गया है।
7- शोध विधि के रूप में अन्तर्वस्तु विश्लेषण और रेण्डम सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया।
8- पूंजीवाद पर सर्वाधिक लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुए हैं। पत्र में इन्हें सर्वाधिक 46 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुआ है।
9- साम्यवाद पर सर्वाधिक लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हुए हैं। पत्र में इन्हें 25 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुआ है।
10- समाजवाद पर सर्वाधिक 46 प्रतिशत लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुए हैं।
11- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से सम्बंधित सर्वाधिक लेखों को दैनिक जागरण में स्थान मिला है। पत्र ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को 33 प्रतिशत स्थान दिया है।
12- पूंजीवाद पर सर्वाधिक सम्पादकीय इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया में समान रूप से 36-36 प्रतिशत प्रकाशित हुए हैं।
13- साम्यवाद पर सर्वाधिक सम्पादकीय दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुए हैं पत्र में इन्हें 21 प्रतिशत स्थान दिया गया है।
14- समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादकीय दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता और पायनियर में 36-36 प्रतिशत प्रकाशित हुए है।
15- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सम्पादकीय दैनिक जागरण में (20 प्रतिशत) प्रकाशित हुए हैं।
16- पूंजीवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र (36 प्रतिशत) इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुए।
17- साम्यवाद से संबंधित संपादक के नाम पत्र को सर्वाधिक स्थान दैनिक ट्रिब्यून में 21 प्रतिशत मिला है।
18- समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र दैनिक हिन्दुस्तान, टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू तथा इंडियन एक्सप्रेस ने 35-35 प्रतिशत प्रकाशित किया है।
19- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र 20 प्रतिशत दैनिक जागरण में प्रकाशित हुए हैं।
20- अध्ययन के अनुसार पूंजीवाद से संबंधित सर्वाधिक चित्र इंडियन एक्सप्रेस में 36 प्रतिशत स्थान पाये हैं।
21- साम्यवाद से संबंधित सर्वाधिक चित्रों व स्थान दैनिक ट्रिब्यून (21 प्रतिशत) मिला है।
22- समाजवाद से संबंधित चित्रों को सर्वाधिक स्थान टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस 35-35 प्रतिशत प्राप्त हुआ है।
23- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक चित्रों को 18 प्रतिशत स्थान साप्ताहिक पत्रिका इंडिया टुडे में मिला है।
24- पूंजीवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस में 36 प्रतिशत प्रकाशित हुए है।
25- साम्यवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब केसरी तथा दैनिक हिन्दुस्तान में 20-20 प्रतिशत संख्यात्मक रूप से स्थान प्राप्त हुए हैं।
26- समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस में 36 प्रतिशत प्रकाशित हुए हैं।
27- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार साप्ताहिक पत्रिका इंडिया टुडे में 18 प्रतिशत प्रकाशित हुए हैं।
28- शोध से प्राप्त निष्कर्ष के अनुसार एक चौथाई पाठक राजनीतिक समाचारों में तुलनात्मक तौर पर अधिक रूचि रखते हैं, जबकि शेष पाठकों की रूचि प्रान्तीय और स्थानीय समाचारों में है।
29- शोध अध्ययन के अनुसार केवल 10 प्रतिशत पाठकों की रूचि विचार प्रधान समाचारों में नहीं है।
30- शोध अध्ययन के अनुसार लगभग एक तिहाई पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित समाचारों को पढ़ना चाहते हैं।
31- पत्रों व पत्रिकाओं में पाठकों की अभिरूचि के अनुसार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित खबरों को गुणात्मक तौर पर पर्याप्त स्थान नहीं मिल रहा है।
32- शोध का एक अन्य रोचक पक्ष है कि 30 प्रतिशत पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा से परिचित नहीं हैं।
33- शोध के अनुसार लगभग दो तिहाई पाठकों का मानना है कि पत्र-पत्रिकाओं में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित समाचारों को वर्तमान से अधिक महत्व मिलना चाहिए।
34- शोध का निष्कर्ष यह है कि जिस मात्रा में पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित पाठय सामग्री और विषयवस्तु को पढ़ना चाहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में अपेक्षात्या काफी कम संख्या में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित समाचार, विश्लेषण, लेख, चित्र संपादकीय व संपादक के नाम पत्र प्रकाशित होते हैं। यह असंतुलन इस शोध में बार-बार उभर कर सामने आया है।
पत्रकारिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में एक अन्योन्याश्रित संबंध है। ऊपर किए गए विश्लेषण से भी यह साफ हो जाता है कि राष्ट्रवाद वास्तव में सांस्कृतिक ही होता है। राष्ट्र का आधार संस्कृति ही होती है और पत्रकारिता का उद्देश्य ही राष्ट्र के विभिन्न घटकों के बीच संवाद स्थापित करना होता है। देश में चले स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही भारतीय पत्रकारिता का सही स्वरूप विकसित हुआ था और हम देख सकते हैं कि व्यावसायिक पत्रकारिता की तुलना में राष्ट्रवादी पत्रकारिता ही उस समय मुख्यधारा की पत्रकारिता थी। स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे इसमें विकृति आनी शुरू हो गई। पत्रकारिता का व्यवसायीकरण बढ़ने लगा। देश के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में भी काफी बदलाव आ रहा था। स्वाभाविक ही था कि पत्रकारिता उससे अछूती नहीं रह सकती थी। फिर देश में संचार क्रांति आई और पहले दूरदर्शन और फिर बाद में इलेक्ट्रानिक चैनलों पदार्पण हुआ। इसने जहां पत्रकारिता जगत को नई ऊंचाइयां दीं, वहीं दूसरी ओर उसे उसके मूल उद्देश्य से भी भटका दिया। धीरे-धीरे विचारों के स्थान पर समाचारों को प्रमुखता दी जाने लगी, फिर समाचारों में सनसनी हावी होने लगी और आज समाचार के नाम पर केवल और केवल सनसनी ही बच गई है।
भाषा और तथ्यों की बजाय बाजार और समीकरणों पर जोर बढ़ गया है। ऐसे में यदि पत्रकारिता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उपेक्षा हो रही है तो यह कोई हैरानी का विषय नहीं है। जैसा कि ऊपर किए गए अध्ययन में हम देख सकते हैं कि देश के प्रमुख मीडिया संस्थान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन बने हुए हैं। कई मीडिया संस्थान तो विरोध में ही कमर कसे बैठे रहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ पाठकों को पसंद हो। ऊपर प्रस्तुत सर्वेक्षण के परिणामों में हमने देखा है कि पाठकों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति पर्याप्त रूचि है लेकिन वे न केवल विवश हैं, बल्कि आज के बाजार केंद्रित पत्रकारिता जगत में उनकी बहुत सुनवाई भी नहीं है। एक समय था जब पाठकों की सुनी जाती थी। यह बहुत पुरानी बात भी नहीं है। 15-16 वर्ष पूर्व ही इंडिया टूडे द्वारा अश्लील चित्रों के प्रकाशन पर पाठकों द्वारा आपत्ति प्रकट किए जाने पर उन चित्रों का प्रकाशन बंद करना पड़ा था। परंतु इन 15-16 वर्षों में परिस्थितियां काफी बदली हैं। आज पाठकों की वैसी चिंता शायद ही कोई मीडिया संस्थान करता हो।
बहरहाल एक ओर हम जहां यह पाते हैं कि आज के मीडिया जगत में काफी गिरावट आई है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वर कमजोर पड़ा है तो दूसरी ओर आशा की नई किरणें भी उभरती दिखती हैं। आशा की ये किरणें भी इस संचार क्रांति से ही फूट रही हैं। आज मीडिया जगत इलेक्ट्रानिक चैनलों से आगे बढ़ कर अब वेब पत्रकारिता की ओर बढ़ गया है। वेब पत्रकारिता के कई स्वरूप आज विकसित हुए हैं, जैसे ब्लाग, वेबसाइट, न्यूज पोर्टल आदि। इनके माध्यम से एक बार फिर देश की मीडिया में नए खून का संचार होने लगा है। इस नए माध्यम का तौर-तरीका, कार्यशैली और चलन सब कुछ परंपरागत मीडिया से बिल्कुल अलग और अनोखा है। जैसे, यहां कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पत्रकारिता कर सकता है। वह ब्लाग बना सकता है और वेबसाइट भी। हालांकि इन नए माध्यमों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रभाव का अध्ययन किया जाना अभी बाकी है लेकिन अभी तक जो रूझान दिखता है, उससे कुछ आशा बंधती है। पत्रकारिता की इस नई विधा को परंपरागत पत्रकारिता में भी स्थान मिलने लगा है और इसकी स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। परिवर्तन तो परंपरागत मीडिया में भी होना प्रारंभ हो गया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रभाव समाचारों और विचारों में झलकने लगा है। नई-नई पत्र-पत्रिकाएं इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए शुरू हो रही हैं। स्थापित पत्र-पत्रिकाएं में भी ऐसे स्तंभ और स्तंभकारों को स्थान मिलने लगा है। आशा यही की जा सकती है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी जड़ों से कट कर नहीं रह सकता, वैसे ही पत्रकारिता भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से कट कर नहीं रह पाएगी और शीघ्र ही वह स्वाधीनता से पहले के अपने तेवर में आ जाएगी।
आज पत्रकारिता एक अत्यंत प्रबल माध्यम बन चुका है। विश्व में कोई भी समाज इसको दुर्लक्षित नहीं कर सकता। हम यदि इस अत्यंत सबल माध्यम में भारत का चिरन्तन तत्व भर सकें तो भारत की मृत्युंजयता साकार हो उठेगी। साथ ही साथ हम राष्ट्र ऋण से भी स्वयं को उऋण करने का प्रयास कर सकते हैं। अपनी भावी पीढ़ी को हम यदि गौरवशाली अतीत का भारत बतायेंगे तो वही पीढ़ी भविष्य के सर्वसत्ता सम्पन्न भारत का निर्माण करेगी और हमारी भारतमाता परमवैभव के सिंहासन साधिकार विराजमान होगी। जगद्गुरूओं का देश भारत फिर मानवता को जाज्वल्यमान आलोक देगा इसी में जन-जन का कल्याण सन्निहित है क्योंकि जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है, जिसका विशाल मन्दिर आदर्श का धनी है। उसकी विजय ध्वजा ले हम विश्व में चलेंगे।
संस्कृति सुरभि पवन बन हर कुंज में बहेंगे॥
तेरी जनम-जनम भर हम वन्दना करेंगे
हम अर्चना करेंगे॥
हे जन्मभूमि भारत, हे कर्मभूमि भारत
हे वन्दनीय भारत अभिनन्दनीय भारत।
तेरे लिये जनमभर हम साधना करेंगे
हम अर्चना करेंगे॥
भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है