Friday, March 25, 2016

भारतीय संस्कृति


डॉ. सौरभ मालवीय
संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुन्दर बनाना है। मानव की जीवन पद्धति और धर्माधिष्ठित उस जीवन पद्धति का विकास भी उस संस्कृति शब्द से प्रकट होने वाला अर्थ है। इस अर्थ में राष्ट्र उसकी संतति रूप समाज, उस समाज का धर्म इतिहास एवं परम्परा आदि सभी बातों का आधार संस्कृति है। सम्पर्क सूत्र दृष्टि से देखा जाए तो इस संस्कृति का मूल वेदों में है। भाषा की उच्चता से समृद्ध, विचारों से परिपक्व, मानवीय मूल्यों का संरक्षक, समाज रचना एवं जीवन पद्धति का समुचित मार्गदर्शन कराने वाला यह वैदिक वाङ्मय गुरु शिष्य परम्परा की असाधारण प्रणाली से उसके मूल स्वरूप में आज तक यथावत् चला आ रहा है। ऐतिहासिक रूप में संसार के सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि वेद ही इस धरती की प्राचीनतम पुस्तक है और वे वेद जिस संस्कृति के मूल हैं वह संस्कृति भी इस पृथ्वी पर सर्वप्रथम ही उदित हुई। उसका निश्चित काल बताना सम्भव ही नहीं हो रहा है। लाख प्रयत्नों के बावजूद विद्वान इसे ईसा पूर्व 6000 वर्ष के इधर नहीं खींच पा रहे हैं।
भारतीय ऋषियों ने लोकमंगल की कामना से द्रवित होकर मानवीय गुणों को दैवीय उच्चता से विभूषित करने के लिए संस्कारों की अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सार्वकालिक सार्वभौमिक व्यवस्था दी है। ऐसा नहीं है कि यह केवल भारतीयों के लिये ही उचित है अपितु किसी भी भू-भाग के मानवीय गुणों के उत्थान हेतु ये संस्कार समीचीन है। इसमें किसी भी प्रकार का बन्धन जातीय, वर्णीय, आर्थिक, सामाजिक देशकालीय लागू नहीं होता।
उत्तम से उत्तम कोटि का हीरा खान से निकलता है। उस समय वह मिट्टी आदि अनेक दोषों से दूषित रहता है। पहले इसे सारे दोषों से मुक्त किया जाता है। फिर तराशा जाता है, तराशने के बाद कटिंग की जाती है। यह क्रिया गुणाधान संस्कार है। तब वह हार पहनने लायक होता है। जैसे-जैसे उसका गुणाधान-संस्कार बढत़ा चला जाता है, वैसे ही मूल्य भी बढत़ा चला जाता है। संस्कारों द्वारा ही उसकी कीमत बढी़। संस्कार के बिना कीमत कुछ भी नहीं। इसी प्रकार संस्कारों से विभूषित होने पर ही व्यक्ति का मूल्य और सम्मान बढत़ा है। इसीलिये हमारे यहां संस्कार का महात्म्य है।
संस्कार और संस्कृति में जरा-सा भी भेद नहीं है। भेद केवल प्रत्यय का है। इसीलिए संस्कार और संस्कृति दोनों शब्दों का अर्थ है-धर्म। धर्म का पालन करने से ही मनुष्य, मनुष्य है, अन्यथा खाना, पीना, सोना, रोना, धोना, डरना, मरना, संतान पैदा करना ये सभी काम पशु भी करते हैं। पशु और मनुष्य में भेद यह है कि मनुष्य उक्त सभी कार्य संस्कार के रूप में करता है। गाय, भैंस, घोड़ा, बछडा़ आदि जैसा खेत में अनाज खड़ा रहता है वैसा ही खा जाते हैं। लेकिन कोई मनुष्य खडे़े अनाज को खेतों में खाने को तैयार नहीं होता। खायेगा तो लोग कहेंगे पशुस्वरूप है। इसीलिए संस्कार, संस्कृति और धर्म के द्वारा मानव में मानवता आती है। बिना संस्कृति और संस्कार के मानव में मानवता नहीं आ सकती।
हमारे यहां प्रत्येक कर्म का संस्कृति के साथ सम्बन्ध है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त और प्रातःकाल शैया त्यागकर पुनः शैया ग्रहणपर्यन्त हम जितने कार्य करें, वे सभी वैसे हो, जिससे हमारे जीवन का विकास ही नहीं हो बल्कि वे अलंकृत, सुशोभित और विभूषित भी करें। ऐसे कर्म कौन से हैं, उनका ज्ञान मनुष्य को अपनी बुद्धि से नहीं हो सकता सामान्यतया बुद्धिमान व्यक्ति सोचता है कि वह वही कार्य करेगा जिससे उसे लाभ हो। लेकिन मनुष्य अपनी बुद्धि से अपने लाभ और हानि का ज्ञान कर ही नहीं सकता। अन्यथा कोई मनुष्य निर्धन और दुखी नहीं होता। अपने प्रयत्नों से ही उसे हानि भी उठानी पडत़ी है। इसलिये कहा जाता है कि हमने अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। अतः मनुष्य को कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान शास्त्रों द्वारा हो सकता है। शास्त्रों द्वारा बताये गये अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य कर्म और निषिद्ध कर्म को जानकर आचरण करना ही संस्कृति है।
जैसे संस्कार और संस्कृति में कोई अन्तर नहीं होता है केवल प्रत्यय भेद है वैसे ही संस्कृति और सभ्यता भी समान अर्थों में प्रयोग होती है। धर्म और संस्कृति भी एक ही अर्थ में प्रयोग होता है लेकिन अन्त में एक सूक्ष्म भेद हो जाता है जिसको मोटे तौर पर कह सकते हैं कि धर्म केवल शस्त्रेयीकसमधिगम्य है, अर्थात् शास्त्र के आदेशानुरूप कृत्य धर्म है जब कि संस्कार में शास्त्र से अविरुद्ध लौकिक कर्म भी परिगणित होता है।
अनादि सृष्टि परम्परा के रक्षण हेतु परब्रह्म परमात्मा ने अखिल धर्म मूल वेदों को प्रदान किया। हमारी मान्यता है कि वेद औपौरुषेय है उसे ही श्रुति कहा जाता है। उन्हीं श्रुतियों पर आधारित है धर्म शास्त्र जिसे स्मृति कहते हैं। शृंगेरी शारदा पीठ के प्रमुख जगत गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री भारती तीर्थ जी महाराज के अनुसार-
श्रुति स्मृति पुराणादि के आलय सर्वज्ञ भगवत्पाद श्री जगत गुरु श्री शंकराचार्य जी ने श्रीमदभागवतगीता के शाकर भाष्य के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि परमपिता परमात्मा ने जगत की सृष्टि कर उसकी स्थिति के लिए मरीच आदि की सृष्टिकर प्रवृति लक्षण धर्म का प्रबोध किया और सनक सनन्दनादि को उत्पन्न कर के ज्ञान वैराग्य प्रधान निवृति लक्षण धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। ये ही दो वैदिक धर्म मार्ग है।
स भगवान सृष्टा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्टा प्रजापतीन् प्रवृति -लक्षणं धर्म ग्राध्यामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृति -लक्षणं धर्म ज्ञान वैराग्यलक्षणं ग्राध्यामान। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृति लक्षणो निवृति लक्षणच्य। जगतः स्थिति कारणम्।।
(जगत गुरु आदि शंकराचार्य, श्रीमदभागवतगीता के शाकर भाष्य में)
इस प्रकार धर्म सम्राट श्री करपात्री जी के अनुसार-
युद्ध भोजनादि में लौकिकता-अलौकिकता दोनों ही है। जितना अंश लोक प्रसिद्ध है उतना लौकिक है और जितना शास्त्रेयीकसमधिगम्य है उतना अलौकिक है। लौकिक अंश धर्म है एवं धर्माविरुद्ध लौकिक अंश धम्र्य है। संस्कृति में दोनों का अन्तरभाव है। अनादि अपौरुषेय ग्रन्थ वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्म ग्रन्थों के अनुकूल लौकिक पारलौकिक अभ्युदय एवं निश्श्रेयशोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है। सनातन परमात्मा ने अपने अंशभूत जीवात्माओं को सनातन अभ्युदय एवं निःश्रेयश परम् पद प्राप्त करने के लिए जिस सनातन मार्ग का निर्देश किया है तदनकूल संस्कृति ही सनातन वैदिक संस्कृति है और वह वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति ही सम्पूर्ण संस्कृतियों की जननी है।
(संस्कार संस्कृति एवं धर्म)
सनातन संस्कृति के कारण इस पावन धरा पर एक अत्यंत दिव्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण कठिन तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित इस दिव्य इलेक्ट्रो-मैगनेटिक फील्ड से अत्यंत प्रभावकारी विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण जारी है, इसी से समग्र भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है। भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है। परिणामतः हिन्दू साम्राज्य किसी समाज, देश और पूजा पद्धति को त्रस्त करने में कभी उत्सुक नहीं रहे। यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले, इसका सतत् प्रयत्न किया जाता है। आवश्यकतानुरूप त्यागमय भोग ही अभीष्ट है तभी तो दातुन हेतु भी वृक्ष की एक टहनी तोड़ने के पूर्व हम वृक्ष की प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि-
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजा पशु वसूनिच।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्ंवनो देहि वनस्पति।।
(वाधूलस्मृति 35, कात्यायन स्मृति 10-4,
विश्वामित्र स्मृति 1-58, नारद पुराण 27-25,
देवी भागवत 11-2-38, पद्म पुराण 92-12)

Thursday, March 17, 2016

उमंग का पर्व है होली


डॊ. सौरभ मालवीय
होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं.  सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष मह्त्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.



होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है.

Friday, March 11, 2016

भारतीय समाज और मीडिया


डॉ. सौरभ मालवीय
आज सम्पूर्ण विश्व विज्ञान की प्रगति और संचार माध्यमों के कारण ऐसे दौर में पहुंच चुका है कि मीडिया अपरिहार्य बन गई है। बड़ी-बड़ी और निरंकुश राज सत्ताएं भी मीडिया के प्रभाव के कारण धूल चाट रही है वरना किसको अनुमान था कि लीबिया के कर्नल मुअम्मद अल गद्दाफी भी धूल चाट लेंगे। मिश्र, यमन और सूडान में जो जन विद्रोह हुए वह कल्पनातीत ही था। सर्व शक्ति संपन्न अमेरिका के ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल में जो अमानुषिक यंत्रणा दी जाती है वह मीडिया के द्वारा ही तो जाना गया। आस्टे्रलिया के जूलियस असाँत्जे की विकीलीक्स में विश्व राजनीतिक संबंधों पर पुर्नविचार के लिए बाध्य हो गया। कुल मिलाकर यह अघोषित सत्य हो गया है कि मीडिया को दरकिनार करके जी पाना अब असंभव है। लोकतांत्रिक देशों में तो मीडिया चतुर्थ स्तंभ के रूप में ही जाने जाते हैं। इस खबर पालिका को कार्यपालिका, विधायिका, न्यायापालिका के समकक्ष ही रखा जाता है। खबर पालिका के अभाव में वह लोकतंत्र लंगड़ा व तानाशाह भी हो जाता है। बहुत पहले प्रयाग के एक शायर अकबर इलाहाबादी ने खबर पालिका की ताकत को राज सत्ता की तोपों से भी ज्यादा शक्तिशाली माना था। उनका यह शेर खबर पालिका में ब्रम्ह बाक्य बन गया कि
”खींचों न कमाने व न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो॥”
इन सारी बुलंदियों के बीच खबर पालिका को एक मिशन बनकर उभरना चाहिए। खबर पालिका से जुड़े लोग स्वयं निर्मित एवं स्वयं चयनित होते हैं। ऐसे में राष्ट्र और समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व और गहरा हो जाता है। यदि वह अपने इस कर्तव्य बोध को ठीक से न समझे तो उनके पतीत होने की संभावना पग-पग बनी रहती है। भारत के दुर्भाग्य से भारत में दो प्रकार की खबर पालिका है जो समानांतर जी रही हैं। एक भारत का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पहुंच भारत की भाषा और बोली में 90 प्रतिशत जनता तक है लेकिन 90 प्रतिशत यह लोग कम शिक्षित और चकाचौंध से दूर रहने वाले ही हैं। दूसरी मीडिया जो इंडिया का प्रतिनिधित्व करती है वह 3 प्रतिशत से भी कम लोगों की है लेकिन वह तीसरे पेज पर छाये रहने वाले लोगों के बूम से चर्चित रहती है। यह तीसरे पेज वाले लोग स्वयंभू शासक है और उन्होंने मान लिया है कि भारत पर शासन करने, इसकी दशा और दिशा तय करने और भारतियों को हांकने की मोरूसी लाठी उन्हीं के पास है और यह लोग खबरों को मनमाने ढंग से तोड़ते-मरोड़ते और प्लाटिंग करते रहते हैं। पिछले साल संपन्न हुए कामन बेल्थ खेलों के दौरान और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की अनियमित्ता में नीरा राड़िया के सामने इस इंडिया के अनेक मीडियाकर नंगे पाये गये। कहां पत्रकारिता का आदर्श गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू विष्णु पराडकर, पूर्णचन्द्र गुप्त, महावीर प्रसाद आदि और कहां आज सर्व सुविधायुक्त जमाने में नीरा राडिया का आदर्श। यह तो होना ही था। जब पत्रकार अपने आदर्शों से चूकता है तो वह पूरी व्यवस्थाओं को लेकर डूबता है। पहले ऐसे पत्रकार ‘पीत पत्रकार’ की सूची में जाति भ्रष्ट होते थे। अब तो इन कुजातियों को एक अवसर ही ‘पेड न्यूज’ में दे दिया गया है। लेकिन बात सबसे अधिक तब अखरती है जब पत्रकार दलाल पत्रकारिता और सुपारी पत्रकारिता के स्तर पर पतित होता है।
आज हिन्दी पत्रकारिता में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समूह की यह स्थिति है कि इनमें से किसी एक के बराबर भी पूरे भारत की सारी प्रिंट मीडिया मिलकर भी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य है भारत का कि 2 प्रतिशत लोगों के लिए छपने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र भारत का नेतृत्व संभालने का दाबा करते हैं। दृश्य पत्रकारिता में अनेक ऐसे ग्रुप आ गये हैं जो अपने राजनैतिक आका की जी-हजूरी को अपना धर्म मानते हैं। अन्यथा सन टीवी और मलयालम मनोरमा का उदय भी कैसे होता? यह तो भला हो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का कि इन लोगों का कुकर्म सामने आ गया। उत्तर भारत के समाचारपत्रों में भी एक-दो छोड़कर ऐसा कोई समाचार समूह नहीं है जो अपने राजनैतिक देवताओं की जी-हजूरी न बताता हो। सहारा समूह, नेशनल हेराल्ड, ऐशियन ऐज, नई दुनिया, टाईम्स ग्रुप आदि की स्वामी भक्ति के आगे तो शर्म भी शर्मशार होने लगी है। ‘इंडिया एक्सप्रेस’ ने जब-जब सहास किया, तब-तब सत्ताधारियों ने उसकी कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह तो रामनाथ गोयनका और अरूण शौरी की इतनी प्रभुत्य तपस्या थी कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। आज भी सत्ता समर्थक मीडिया को सरकारी विज्ञापनों से मालामाल कर दिया जाता है और सत्य समर्थक मीडिया पर सरकारी पुलिसिया रौब के डंडे फटकारे जाते हैं, उनका जीना दुभर कर दिया जाता है। उन्हें संसदीय या विधानसभाई कार्यवाहियों के प्रवेश पत्र भी नहीं दिये जाते हैं, जबकि सरकारी भौपूओं को देश-विदेश की असमिति यात्राओं सहित फ्लेटस और अनन्यान्य प्रकार की सभी सुविधाओं से सजाकर दामाद जी जैसी आवभगत की जाती है।

संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मो. +919907890614

ईमेल : drsourabhmalviya@gmail.com                                                                             

Friday, March 4, 2016

भारतीय संस्कृति में नारी कल, आज और कल


डॉ. सौरभ मालवीय
‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है, इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कान्ता आदि है, इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विलसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात समग्र सृष्टि ही नारी है इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो वरवश मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम माँ हो ............।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण मैं फंस जाते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है माँ । अत्यंत दुःख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनी उच्चरित होती है वह सिर्फ माँ ही होती है। क्योंकि माँ की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है ।  और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं लेकिन माँ ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते है कि-
वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पीतरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार सम्भवम)
जगत के माता-पिता (पीतर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन।
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते  हैं –
जगत मातु पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते है, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परन्तु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। सन्त ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को“माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते है –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचन्द्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूँघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को सन्त कबीर स्त्री मानते है और शिव (ब्रह्म) को पुरुष यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है ।
भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है, पूरी सृष्टि ही स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि ,निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियाँ भाव-प्रधान होती हैं, सच कहिये तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है,बुद्दि में भी ह्रदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी आनंद की अनुभूति करती रहती।कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नही कर सकता। भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविध कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है उनका बुरा नहीं करती,जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नही सकता क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है, विवेक हिसाब करता है घाटा लाभ जोड़ता है, और हृदय हिसाब नही करता। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
यह आज समझ मैं पायी हूँ कि
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयन की सुन्दर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूँ ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है,इसके दो स्तम्भ है- स्त्री और पुरुष।परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महतवपूर्ण है,समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है|कई पुरानी परम्पराओं,रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ।महिलाएँ अब घर से बाहर आने लगी है कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दे रही है,अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही है अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा,शिक्षा,राजनीति,खेल,मिडिया सहित विविध विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को सँभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की  कि नारी विकास की केन्द्र है और भविष्य भी उसी का है, स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती। अतः मानव और मानवता दोनों को बनाये रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।

संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
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भारत की राष्‍ट्रीयता हिंदुत्‍व है